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मराठी साहित्य में हास्य- रस
श्री के० ना० डागे एम० ए०
महाराष्ट्रोयो में विनोद-बुद्धि विशेष रूप मे है । अग्रेजी साहित्य मे परिचित होने के बहुत पहिले से उनमें परिहास -वृत्ति जाग्रत थी । 'पहिले शिखर, फिर नीव' का वेदान्तपूर्ण विनोद व्यक्त करने वाला मन कवि एकनाथ, 'पहिले लोगे तभी दोगे क्या हे भगवान' कहने वाले नामदेव और 'अच्छी भेट हुई एक ठग ने दूसरे ठग की' कहने वाला तुकाराम इसके उदाहरण हैं । मोरोपत ने अपनी 'केकावली' मे गाभीर्य छोड़कर का ललता अललता' में बच्चो की सी तुतलाहट गहण की हैं । लोकगीतो में गोपियो की हास्यपूर्ण उक्तियो में, कीर्तनकारो के हास्यपूर्ण चुटकुलो में, लावनियां गाने वालो को प्रस्यात छेकापन्हुतियो मे, घर-घरमे पहेली बुझौवल के रूप में 'उखाणो' में वह हास्य फैला हुआ है।
यदि मायाब्रह्म का विचार करने वाले वेदाभ्यासी जड गुरुजनो में विनोदप्रियता इस सीमा तक है तो पग्रेजी साहित्य के सपर्क में आते ही यह परिहासबुद्धि विशेष रूप से फूली फली हो तो उसमें ग्राम्नर्य क्या ? इम पीढी के पहिले की पोढी ने पूर्व अनुवादित हास्य पर ही विशेष ध्यान गया था। शेक्सपीयर और गोल्डस्मिथ के नाटक, बीरवन की कहानियाँ, उत्तर रामचरित - मृच्छकटिक आदि के अनुवाद बहु प्रचलित थे । इनके पश्चात् स्वतत्र प्रज्ञा के हास्य की रचनाएँ होने लगी-गडकरी के नाटक मे भुलक्कड 'गोकुल की गवाही' 'पण्भानिका का वादा' विदूषक मैत्रेय - गकारादि के श्लेपो मे प्रवतक यानी अत्रे की प्रसिद्ध 'पैरोडी ' - 'घोवो, कब आओगे लोट ।" या वामन मल्हार जोशी के काव्यशास्त्रविनोद तथा मामा वरेरकर के मुन्दर सवादो तक इस हास्य ने अनेक रूप धारण किये है। आज के हमारे समाजजीवन में तो इस विनोदप्रियता के दर्शन सर्वत्र होते है कहानियों मे, चित्रपटो में, पत्रपत्रिकाओ मे चार महाराष्ट्रीयो की गप्पो की बैठक मे । सकट सहने की आदत, कष्टमय जीवन मे भी हँसमुख रहने का स्वभाव, ओजस्वी आशावाद, वुद्धिप्रधान जीवन में आनन्द मानने की टेव, स्वस्थ शरीर और आलोचनात्मक वृत्ति आदि गुणो के विचित्र समन्वय के कारण महाराष्ट्र के हाड-मान में हास्य भरा हुआ है । गवाह वनने वाले नापित गायको से लगाकर इतिहाससशोवन और साहित्यसम्मेलन जैसे गंभीर प्रसगो तक हास्यप्रियता इनके जीवन मे रमी हुई है । जव दूसरे लोग जीवन की विषमताओ को बुरा-भला कहते हैं, उसके नाम ने रोते हैं, महाराष्ट्रीय हॅम-खेलकर उनको भुलाने का प्रयत्न करते है । यह उनकी स्वभाव-गत विशेषता है ।
आधुनिक साहित्य में हास्ययुग का आरंभ श्रीपाद कृष्ण कोल्हटकर के 'सुदामा के तदुल' से होता है । 'पानी के दुर्भिक्ष्य' में कोल्हरकर कहते हैं -- "श्राद्ध के तर्पण मे पानी का मितव्यय होने लगा । शुद्धोदक का कार्य पूजनविधि में केवल अक्षताओं से होने लगा । पानी पीते समय 'हाँ, पानी नही, जरा मदिरा पी रहा हूँ' ऐसे असत्यविधान करने लगे । पानी की दुकान खुलने लगी- उनमे जो प्रामाणिक थी वही शुद्ध पानी मिलता । अन्य दूकानो मे तो पानी में दूध मिलाकर दिया जाता" । कोल्हरकर के हास्य निवघो मे लोकभ्रमो का निरसन और सामाजिक रूढियो पर प्रहार मिलते हैं । उदाहरणार्थ विवाह में दहेज की प्रथा के सबंध में वे कहते है - 'महारानी विक्टोरिया की जीवनी जबसे मैने पढी, उनकी अलौकिकता के विषय में मेरी श्रद्धा बढती ही चली गई । वह श्रद्धा यहाँ तक वढी कि मुझमे उनके चेहरे की मुद्राओ का सग्रह करने का शौक बहुत वढा । रानी साहिबा तो नही रही, कम से कम उनकी रौप्य प्रतिमाओं का वियोग न हो, इसी भावना से मैं अपने पुत्र के लिए दहेज स्वीकार करूंगा।' ज्योतिष सम्मेलन के अध्यक्षपद से दिये भाषणो में भी उन्होने अपनी विनोदप्रियता नहीं छोडी ।