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प्रेमी-अभिनवन-प्रथ
कविता की नीव वनानेवालो में मुख्य है । होनाजी की कविता मे उत्तान शृगार होने पर भी मधुरता खूब है । प्रभाकर की रचनाएँ सस्मरणीय है।
आधुनिक काल १८१८ ईस्वी में पानीपत में पेशवा-राज्य का पूर्ण पराभव हुआ और महाराष्ट्र में ब्रिटिश राज्य का सूत्रपात । ब्रिटिशो का पूर्ण परिचय होने से पहिले प्रारभिक सभ्रम, सनातनी विरोध, सुधारवादियो की सपूर्ण प्राग्लानुकरण की वृत्ति, परिपक्व राष्ट्रीय विरोध आदि कई अवस्थानो मे से हमारे और ब्रिटिशो के सवध गुजरे। न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से वरन् इस सारी दुखान्त कथा की पूर्वपीठिका समझने की दृष्टि से न० चि० केलकर की 'मराठे आणि इग्रज' पुस्तक बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । प्रारभ में मराठी-भाषी अग्रेजी की ओर झुकने के बजाय एकानेक कारणो से मराठी की ओर झुके थे। १८१० ईस्वी में सीरामपुर में डॉ विलियम करे ने मराठी-अग्रेजी कोष छपाया । उसी समय गणपत कृष्ण जी ने बवई मे प्रथम मुद्रणालय स्थापित किया। १८२० में ववई-प्रात अग्रेजो के हाथो मे पाया। माउट स्टुअर्ट एल्फिन्स्टन बबई के गवर्नर बनाये गये। आपने शिक्षा का प्रसार किया। तनिमित्त ग्रथानुवाद कराये। मोल्सवर्थ, कंडी, जविस आदि अग्रेज और जगन्नाथ शकरशेट, सदाशिव काशिनाथ छत्रे, बालशास्त्री जाभेकर आदि विद्वान उस प्रथोत्पादन-सस्था में कार्य करते थे। व्याकरण, अकगणित, भूमिति, पदार्थविज्ञान आदि विषयो पर विपुल ग्रथरचना की गई। मराठी गद्य का और वैज्ञानिक साहित्य का इस प्रकार से प्रारभ हुआ। १८५६ में बवई विश्वविद्यालय की स्थापना तक यह अरुणोदय (रिनेसाँ) चलता रहा।
बवई विश्वविद्यालय की स्थापना से 'निबंधमाला' नामक मासिक के उदय तक (१८५७ से १८७४ ईस्वी) का काल प्राचीन और नवीन के संघर्ष का काल है। एक अोर सस्कृत-ज्ञान-परपरा के शास्त्री-पडितजन, दूसरी ओर अग्रेजी विद्या और वाङ्मय के सपर्क में आये हुए नवीन विद्वान् । १८५६ तक का साहित्य अधिकाश शालेय (स्कूलोपयोगी)था, परतु अव साहित्यिको के मनो मे यह भावना काम करने लगी कि साहित्य का प्रचारात्मक और कलात्मक पक्ष भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। फलत जहाँ परशुरामपत, तात्या गोडवोले ने सस्कृत नाटको के अनुवाद किये थे, उसी परपरा को कृष्णशास्त्री राजवाडे ने आगे चलाया । गत वर्ष जाकर कही हिन्दी में कालिदास के समग्र नाटको के और काव्यप्रकाश जैसे ग्रयो के सस्कृत से हिंदी अनुवाद हिंदी में छपे है। मराठी में यह कार्य पचास वर्ष पूर्व हो चुका था। गणेशशास्त्री लेले ने भी बहुत से अनुवाद सस्कृत और अंग्रेजी से किये । इस काल-खड के सबसे पसिद्ध लेखक है पितापुत्र, कृष्णशास्त्री और विष्णुशास्त्री चिपलूनकर। दोनो के आविर्भाव काल में पच्चीस वर्षों का अतर था, परतु दोनो का आदर्श एक था। कृष्णशास्त्री ने मिशनरियो के विरोध में 'विचार-लहरी' पत्र १८५२ में शुरू किया। डॉ० जान्सन के रासेलस का अनुवाद और 'अनेकविद्यामूलतत्त्वसग्रह' नामक स्फुट लेखों का ग्रथ १८६१ में प्रकाशित किया । मेघदूत और जगन्नाथ पडित के करुणविलास के पद्यानुवाद, सुकरात की जीवनी आदि अन्य कई ग्रथ लिखे। उनका अधूरा कार्य दुगने जोश से उनके सुपुत्र विष्णुशास्त्री ने चलाया । न केवल उन्होने पिता के अधूरे लिखे हुए अरेवियन नाइट्स' (सहस्र-रजनी-चरित्र, अरबोपन्यास)का अनुवाद पूरा किया,अपितु अपनी 'निवधमाला' द्वारा मिशनरियो पर अपना शब्दशस्त्राघात और भी प्रखर रूप से व्यक्त किया। 'आमच्या देशाची स्थिति' नामक निवध सरकार ने जन्त कर लिया था और काग्रेस शासनकाल में उस पर के निबंध उठे। आपही ने प्राचीन ऐतिहासिक साहित्य के प्रकाशनार्थ 'काव्योतिहाससग्रह' नामक मासिक, 'निवधमाला' नामक पत्रिका, 'चित्रशाला' और 'कितावखाना' नामक प्रकाशन सस्थाएँ और तिलक, आगरकर के सहकार्य से 'केसरी' और 'मराठा' नामक मराठी अग्रेजी पत्रो का सूत्रपात किया। निवधमाला के कुल ८४ अक उपलब्ध है, जो कि पूरे विष्णुशास्त्री ने लिखे है । उनके अन्य साहित्य का सुन्दर सकलन