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प्रेमी-अभिनवन-ग्रंथ
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so माडखोलकर, विभावरी शिरूरकर फडके उच्चवर्ग के पात्रो को चुनते हैं । उनके प्रारम्भिक उपन्यास अधिका रोमेटिक है। प्रेम का त्रिकोण विभिन्न रूपो में व्यक्त हुआ है । परन्तु वर्णन की शैली बहुत सजीव और ययार्थवादी होने के कारण और भाषा का प्रवाह बहुत ऋज् और प्रसन्न होने से - जादूगर, दौलत, अटकेपार आदि उनके आरम्भिक उपन्यास बहुत ही जनप्रिय बने । 'निरजन' से आगे 'शाकुन्तल' तक फडके ने अपने सामाजिक उपन्यामो की पार्श्वभूमि के रूप में राजनैतिक आन्दोलनो और पक्षो की मतावलियो को लिया, यया 'निरजन' और 'आशा' मे सन् ३० का सत्यागह, 'प्रतिज्ञा' मे राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ और हिन्दुत्वनिष्ठ राजकारण, 'समरभूमि' और 'उद्धार' में समाजवाद और नाम्यवाद, शाकुन्तल मे ४२ का आन्दोलन, 'माभावमं' में हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य को समस्या । प्रगतिशील माहित्य के सम्बन्ध में आचार्य जावडकर से जो उनका लेखरूप लम्वा विवाद हुआ है, उसमें वे 'कला के लिए कला' वाले अपने पुराने उसूल से कुछ वदले हुए जान पडते हैं। फिर भी श्रानन्द- प्राधान्य उनकी रचनाओ में मिलता है। इनसे विलकुल उलटे वि० स० खाडेकर 'जीवन के लिए कला' मान कर चले । 'हृदयाची हाक', 'काचनमृग', 'दोन ध्रुव' तक उनकी रचनाओ मे कोकण की प्राकृतिक पार्श्वभूमि पर काव्यमयी भाषा-दौली में कृनिम कथानक - रचना मिलती है । परन्तु 'दोन ध्रुव' के वाद 'उल्का' (जो उनको सर्वश्रेष्ठ कृति है), 'हिसा चाफा', 'दोनगने', 'रिकामा देव्हारा', 'चव' तक उनकी शैली सहजरम्यता ग्रहण करती जाती हैं श्रीर गाधीवाद तथा समाजवाद के मनोहर मिश्रण का श्रादर्श उनके उपन्यासो मे स्थल-स्थल पर व्यक्त हुआ है । माडखोलकर ने 'मुक्तात्मा' ने प्रारम्भ कर प्रगतिशील उपन्यासकारो मे अपना कदम रखा। तब से उनके नवीनतम उपन्यास 'डाकवगला' थोर 'चदनवाडी' तक वे रोमाम और राजनीति का ऐसा मजेदार मिलन अपने उपन्यासो मे उपस्थित करते रहे हैं कि कही आलोचको ने उनको 'दुहेरी जीवन', 'नागकन्या' आदि रचनाओ को अश्लील कहा है तो कही 'काता', 'मुखवटे' आदि को डा० सरे के पदत्याग प्रकरण पर लिखी प्रचारात्मक चीज़े । उनको 'नवेससार' और 'प्रमद्वरा' ('४२ के प्रान्दोलन पर लिखी दीर्घकथा) सरकार द्वारा जब्त किये गये दो उपन्यास है। आरम्भ से ही क्रातिकारी नायको भौर क्रातिकारी प्रान्दोलनो का बहुत निकटतम चित्रण करते रहने के कारण उनकी शैली में सुन्दर भावोत्कटता है, यद्यपि वर्णन कही कही यथार्थ से प्रति यथार्थ पर उतर आते हैं । पु० य० देशपाडे माडखोलकर की ही भाँति नागपुर के है, परन्तु उनकी रचनाओं में मार्वजनीनता अधिक है । 'बवनाच्या पलीकडे' नामक उनके विद्रोही उपन्यास ने एक समय महाराष्ट्र में खलबली मचा दी थी । उत्तरोत्तर उनकी कला 'सुकलेल फूल' और 'सदाफुली' में बहुत ही विकसित होती गई । यद्यपि 'विशालजीवन', 'काली रानी' और 'नवे जग' मे कुछ दुरुहता उनकी शैली में श्रा गई है और पहले का सा हलका फुलकापन जाकर वह भारी हो गई है, परन्तु मनोवैज्ञानिक विश्लेषण- सूक्ष्मता - क्षमता भी उतनी ही बढती चली गई हैं। देशपाडे इस वात के दिशा दर्शक है कि मराठी उपन्यास अव एक नई दिशा की ओर जा रहा है । वह खाडेकर के मानवतावाद और फडके - माडखोलकर के फैशनेबुल राजनैतिक उपन्यासो से अधिक गम्भीर वैचारिक क्षितिज की ओर वढ रहा है । जो कमाल पश्चिम मे काफ्का (पोलड का प्रतीकवादी उपन्यासकार ) या अल्डस हक्स्ले, लारेस या वूल्फ ने कर दिखाया वह धीरे-धीरे पु० य० देशपाडे मराठी में प्रतिष्ठित करना चाह रहे हैं। इस दृष्टि से, विभावरी शिरूरकर नामक उपनाम के बुर्के में छिपी, परन्तु आठ-दस वर्ष पूर्व मराठी कथाक्षेत्र में स्त्री का दृष्टिकोण बहुत स्पष्टता और बुलदगी से व्यक्त करने वाली महिला के दो उपन्यास 'हिन्दोल्यावर', और 'विरलेले स्वप्न' उल्लेखनीय है। टूटती हुई कुटुम्व व्यवस्था के वे बहुत अच्छे चित्र है ।
यहाँ अधिक विस्तार से उपन्यास पर लिखा नही जा सकता, परन्तु इस दिशा में मामा वरेरकर, गीता साने और कृष्णावाई मोटे द्वारा चित्रित की हुई नई नारी, विद्रोही नायिका का चित्र भुलाया नही जा सकता । साने गुरु जी ने बच्चो के विकासशील मन पर 'श्याम', 'श्यामूकी माँ', भारतीय संस्कृति सम्बन्धी 'श्रास्तिक' और 'क्राति', 'पुनजन्म' आदि राष्ट्रीयता - प्रचारक बहुत लोकप्रिय उपन्यास लिखे है । श्री० दिघे ने महाराष्ट्र के ग्रामजीवन के सुन्दर चित्र 'पाणकला' और 'सराई' मे उपस्थित किये है । मर्ढेकर, माघवमनोहर, रघुवीर मामत और श० वा० शास्त्री