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मराठी साहित्य की कहानी
५२७ (फैड) का पोषक है । उन खन्तो के 'उद्याचा ससार' मे वैवाहिक असतोप के 'लग्नाची वेडी' मे आधुनिक प्रेमविवाह के 'घरावाहेर' मे पुरानी नई गृह-व्यवस्था के संघर्ष के बहुत ही आकर्षक चित्र उपस्थित किये गये है। आचार्य अत्रे ने पैरोडियां लिखकर जो कमाल हासिल किया था, उसमे मचपर अपना 'अतिहसित' प्रदर्शित कर चार चांद लगा दिये। वाद में वे सिनेमा के क्षेत्रो मे उतरे, वहाँ भी चमके, मगर इधर पाकर नाट्यक्षेत्र से जैसे उन्होने सन्यास सा ले लिया है, जो दोनो मराठी नाटक के तथा अत्रे के हक मे ठीक नही हुआ । मराठी रगमच उनसे अभी भी बहुत अपेक्षा कर मकता है । आधुनिकतम प्रयोगो मे वर्तक अनत काणेकर, के० ना० काले का नाट्यमन्वतर-मडल, 'लिटिल थियेटर
और इधर लोकनाट्य के जो नये सोवियत-पद्धति के प्रयोग चल रहे हैं, इन सभी सत्प्रयत्लो ने सिनेमा से पराजित रगभूमि को पुनरुज्जीवित और सप्राण बनाने में योग दिया है।
नाटक के ही मिलसिले मे 'नाट्य-छटा' का भी उल्लेख गौरव से करना चाहिए, जो मराठी साहित्य की अपनी चीज़ है। स्व. 'दिवाकर' आदि लेखको ने इसे अपनाया । इसमें ‘एकमुखी-भाषण' द्वारा सामाजिक विरोवो को स्पष्ट किया जाता है। एक प्रकार से यह शब्दो में लिखे हुए व्यग-चित्र ही समझिये । यद्यपि इस प्रकार के लेखन का चलन अव कम हो गया है तथापि यह एक अच्छा साहित्य प्रकार है, जो हिंदी को भी अपनाना चाहिए। ३ उपन्यास-आख्यायिका आदि
मराठी उपन्यास का जन्म यात्रा-वृतान्तो में मिलता है। मराठी का पहिला उपन्यास 'यमुनापर्यटन' (१८४१ ईस्वी के करीव) यद्यपि नाममात्र को सामाजिक है, तथापि उसकी रचना मनोरजनप्रधान ही अधिक है। अद्भुतरम्यता पर उनका अधिक ध्यान था। १८७० के करीव मराठी मे ऐतिहासिक उपन्यास लिखने की प्रथा चल पडी। फिर भी १८८५ के पश्चात् उल्लेखनीय उपन्यासकार हरिनारायण आप्टे है। हिंदी के प्रेमचद की ही भाति आपने मराठी मध्यवर्गीय जीवन के यथार्थ चित्र अकित किये । आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनका लक्ष्य था। दोनो को ही समाचार-पत्र की सी शैली में खडश लिखना पडा। अत दोनो की शैली में कुछ अनावश्यक लम्बे और उवा देने वाले वर्णन मिलते है । आपकी प्रसिद्ध और ऐतिहामिक एव सामाजिक कादवरियो के नाम हैउप काल, सूर्योदय, सूर्यग्रहण, गडालापण सिंह गेलामी, (यह चारो शिवा जी के राज्यकाल सवधी है) यशवतराव खरे, पण लक्षात कोण घेतो। नारायण हरि आप्टे नामक एक दूसरे उपन्यासकार ने भी इस युग में ऐसी उपन्यास आख्यायिकाएँ लिखी, जो कि आप्टे की शैली की अनुकृति पर कौटुबिक जीवन से मवधित थी, किन्तु कम लोकप्रिय हुई।
उपन्यास के क्षेत्र मे दूसरा युग वामनमल्हार जोशी से प्रारम्भ होता है। आपने तीन-चार ही उपन्यास लिखे है, परन्तु सभी विचारप्रक्षोभक है। रागिणी, नलिनी, आश्रम-हरिणी, सुशीलेचा देव, इन्दुकाले और सरला भोले ये उनके मुख्य उपन्यास है। सव मे किसी दार्शनिक या नीतिशास्त्रीय समस्या की विवेचना प्रमुख है। डॉ. केतकर ने अपने उपन्यासो में समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण को प्राधान्य दिया और दोनो को ही मराठी के सामाजिक उपन्यास को विचार-क्षेत्र में आगे बढाने का श्रेय है । ऐतिहासिक उपन्यास इस काल मे भी नाथमाधव और हडप ने शिवाजी काल और पेशवाई को लेकर बहुत से लिखे और वे वहुत लोकप्रिय भी हुए। राखालदास बनर्जी के 'शशाक', 'करुणा', 'अग्निवर्षा' आदि के अनुवाद इसी काल मे हुए। श्री० शहा ने सम्राट अशोक और छत्रसाल नामक दो प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास प्रकाशित किये, जिनका अनुवाद हिन्दी में प्रेमी जी ने प्रकाशित किया है।
अव उपन्यास केवल प्रागे घटना-प्रधान या विचार-प्रधान न रह कर जन-जन के जीवन की आकाक्षायो और स्वप्नो का प्रतिनिधि वन गया। आगे जिन पाँच उपन्यासकारो का विस्तारपूर्वक विचार होगा, वे इसी प्रकार के लोकप्रिय और साहित्य के नवोत्थान के प्रतिनिधि उपन्यास लेखक है ना० सी० फडके, वि०म० खाडेकर, पु० य० देशपाडे, ग०