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प्रेमी-प्रभिनदन-ग्रंथ
यह प्रसिद्ध है कि विजयनगरनरेश प्रथम देवराय ही 'राजाधिराज परमेश्वर' की उपाधि मे भूपित थे ।' इनका राज्य-काल सम्भवत १४१८ ई० के पहले रहा है, क्योकि द्वितीय देवराय ई० १४१९ मे १४४६ तक माने जाते है। अत इन उल्लेखो से यह स्पष्ट है कि वर्द्धमान के शिष्य धर्मभूपण तृतीय (न्यायदीपिका के कर्ता) ही देवराय प्रथम द्वारा सम्मानित थे। प्रथम अथवा द्वितीय धर्मभूषण नहीं, क्योकि वे वर्द्धमान के शिष्य नहीं थे। प्रथम धर्मभूषण तो शुभकीति के और द्वितीय धर्मभूषण अमरकीत्ति के शिष्य थे। अतएव यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि अभिनव धर्मभूषण देवराय प्रथम के समकालीन है अर्थात् उनका अन्तिमकाल ई० १४१८ होना चाहिए। यदि यह मान लिया जाय तो उनका जीवनकाल ई० १३५८ से १४१८ ई० तक समझना चाहिए । अभिनव धर्मभूषण जैसे पभावशाली विद्वान् जैनसाधु के लिए साठ वर्ष की उम्न पाना कोई ज्यादा नहीं है। हमारा अनुमान यह भी है कि वे देवराय द्वितीय (१४१६-१४४६ ई०) और उनके श्रेष्ठि सकप्प के द्वारा भी प्रणुत रहे हैं। हो सकता है कि ये अन्य धर्मभूषण हो। जो हो, इतना अवश्य है कि वे देवराय प्रथम के समकालीन निश्चित रूप से है।
'न्यायदीपिका' (पृ. २१) मे 'वालिशा' शब्दो के साथ सायण के सर्वदर्शनसग्रह से एक पक्ति उद्धृत की गई है । सायण का समय शक स० १३वी शताब्दी का उत्तरार्घ माना जाता है, क्योकि शक स० १३१२ का उनका एक दानपत्र मिला है, जिससे वे इसी समय के विद्वान् ठहरते है। न्यायदीपिकाकार का 'वालिशा' पद का प्रयोग उन्हें सायण के समकालीन होने की प्रोर सकेत करता है। साथ ही दोनो विद्वान् निकट ही नहीं, एक ही जगह विजयनगर के रहने वाले भी थे और एक दूसरे की प्रवृत्ति से भी परिचित जान पडने है। इसलिए यह सम्भव है कि अभिनव धर्मभूषण और सायण समसामयिक होगे अथवा दस-पांच वर्ष आगे-पीछे के। अत 'न्याय-दीपिका' के इस उल्लेख से भी पूर्वोक्त निर्धारित शक स० १२८० से १३४० या ई० १३५८ से १४१८ का समय ही सिद्ध होता है। अर्थात् ये ईसा की १४वी सदी के उत्तरार्ध और १५वी सदी के प्रथम पाद के विद्वान् है ।
डा० के० वी० पाठक और प० जुगलकिशोर जी मुख्तार इन्हें शक स० १३०७ (ई० १३८५) का विद्वान् बतलाते है, जो विजयनगर के शिलालेख न० २ के अनुसार सामान्यतया ठीक है, परन्तु उपर्युक्त विशेष विचार मे ई० १४१८ तक इनको उत्तरावधि निश्चित होती है। डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण 'हिस्ट्री ऑफ दि मेडीवल स्कूल ऑफ इडियन लॉजिक' में इन्हे १६०० ई०का विद्वान् सूचित करते है, पर वह ठीक नहीं है, जैसा कि उपर्युनत विवेचन से प्रकट है। मुख्तार साहब ने भी उनके इस मत को गलत ठहराया है।
-२ देखिए, डा० भास्कर आनन्द सालेतोर का 'मेडीवल जैनिज्म' पृ०३००-३०१, मालूम नहीं डा० सा०' ने द्वितीय देवराय (१४१६ ई०-१४४६ ई०) की तरह प्रथम देवराय के समय का निर्देश क्यो नहीं किया।
'डा० सालेतोर दो ही धर्मभूषण मानते हैं और उनमें प्रथम फा समय १३७८ ई० और दूसरे का ई० १४०३ बतलाते है तथा वे इस झमेले में पड़ गये है कि कौन से धर्मभूषण का सम्मान देवराय प्रथम के द्वारा हुआ था। (देखिए मेडोवल जैनिज्म पृ० ३००) । मालूम होता है कि उन्हें विजयनगर का पूर्वोक्त शिलालेख न० २ प्रादि प्राप्त नहीं हो सका, अन्यथा वे इस निष्कर्ष पर न पहुँचते।
*प्रशस्ति स० १४५ में इनका ई० १४२९-१४५१ दिया है।
५ इसके लिए जैन सिद्धान्तभवन, पारा से प्रकाशित प्रशस्ति स० में परिचय कराये गये वर्द्धमान मुनीन्द्र का 'दशभक्त्यादिमहाशास्त्र देखना चाहिए ।
'देखो, सर्व-दर्शनसग्रह की प्रस्तावना पृ० ३२ । 'स्वामी समन्तभद्र पृ० १२६ "स्वामी समन्तभद्र' पृ० १२६