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मराठी-साहित्य की कहानी
श्री. प्रभाकर माचवे एम० ए०
प्राचीन साहित्य मराठो का प्राचीनतम आद्य कवि है मुकुन्दराज । इसके निश्चित काल के सम्बन्ध मे पता नहीं चलता। मावारणत ज्ञानेश्वर मे एक गती पहले (११८८ ईवी) के लगभग 'विवेकमिन्यु' और 'परमामृत' इन दो ग्रन्थो की रचना मुकुन्दराज ने की। 'ओवी' नामक मराठी के अपने अक्षरछन्द में अद्वैत-वेदान्त पर ये दोनो ग्रन्थ है। भाषाशैली उतनी प्राचीन नही जान पडती, जितनी ज्ञानेश्वरी की है। यह कवि नाथसम्प्रदाय का था। मछिन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, गैनीनाथ आदि शिवभक्त, हठयोगी गरुयो की परम्परा उत्तरभारत मे महाराष्ट्र में आई। इमी नाथमम्प्रदाय मे आगे चलकर महाराष्ट्र का 'वारकरी' (भागवत-धर्म) सम्प्रदाय निकला।
जिस प्रकार एक ओर नाथमाम्प्रदायिक प्राचीन काव्य मिलता है, उसी प्रकार दूमरी ओर महानुभाव-पन्य नामक एक पन्य वर्मजाग्रति का कार्य कर रहा था। यह माहित्य प्राचीन भाषा-गली के अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। 'सकला' और 'सुन्दरी' नाम की साकेतिक लिपियो में यह साहित्य लिखा जाने के कारण कई गतियो तक इनके मार-सत्त्व मे जनता अनभिज्ञ थी। राजवाडे, भावे, य० खु० देशपाडे, नेने आदि आधुनिक सशोधको के प्रयत्न से वह साहित्य अव सब के लिए उपलब्ध हो मका है। गोविन्द प्रभु इस सम्प्रदाय के मूल पुरुष थे (११८८ ईस्वी)। उनके शिष्य चक्रवर हुए। कृष्ण और दत्त को महानुभावीय मुख्य आराध्य देवता मानते थे। स्त्रियो-शूद्रो तक को वे सन्यासदोक्षा देते थे। चक्रवर को थोडे से अवकाग में बहुत से शिप्य मिले। नागदेवाचार्य उनमें मुख्य थे। महानुभावियो की माहित्यिक दार्शनिक कृतियो में 'सिद्धान्तमूत्रपाठ', जिममे १६०६ मूत्र है और 'लीलाचरित्र' प्रमुख है। ये दोनो ग्रन्थ गद्य मे है। इनके वाद 'माती ग्रन्यो' को पूज्य माना जाता है। ये पद्यवद्ध है। इनके नाम है-शिशुपालवध, एकादशस्कन्द, वत्महग्ण, रुक्मिणी-म्बयवर, ज्ञानवोध, सह्याद्रिवर्णन, ऋद्धिपूरवर्णन । प्रथम चार कृष्णचरित को लेकर है। मराठों को आद्य कवियित्रो महदम्बा चक्रवर के मुख्य शिष्य नागदेवाचार्य की चचेरी वह प्रमग पर गाने योग्य कृष्ण-भक्ति-रम से भरे 'धवले' उमने लिखे है । 'धवले' अभग-छन्द के समान चार चरणो का अनियमित अक्षर-मस्या का छन्द है । इन धवलो से सतुकान्त कविता का मराठी में प्रारम्भ होता है। भावेव्यास नामक चक्रवर का दूसरा शिष्य प्रसिद्ध है। उसने 'पूजावसर' नामक चक्रवर का जीवनचरित लिखा है । महानुभावपन्य को स्थापना मे एक शताब्दी तक इसी पन्य की काव्य-परम्पग साहित्य के इतिहास मे सभी दृष्टियो से महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
१२६० ईस्वी मे भगवद्गीता के अट्ठारह अध्यायो पर नौ हजार प्रोवियो मे जो पद्यात्मक टीका मराठी मन्तकवियो को परम्परा के प्राद्यप्रणेता श्री ज्ञानेश्वर ने अपने 'ज्ञानेश्वरी' नामक ग्रन्थ द्वारा की, वह मराठी साहित्य के इतिहाम को एक अपूर्व घटना है। गोदावरी नदी के किनारे आपेगांव मे विट्ठलपन्त को श्री पादस्वामी की कृपा से सन्यासोत्तर जो चार मन्तान हुई उनके क्रमवार नाम है--निवृत्ति, नानदेव, सोपान, मुक्तावाई। ये सभी सन्तकवि थे, किन्तु ज्ञानदेव उनमें मवसे अधिक विख्यात हुए । केवल २२ वर्ष वे जीवित रहे। ऐमी अल्पायु में दर्शनशास्त्र में परिप्लुन और साहित्य-मोन्दर्य मे विभूपित काव्य-ग्रन्थ मराठी में ही क्या, अन्य माहित्यो मे