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मराठी साहित्य की कहानी
५१७ आपका काल १६०० से १६५० ईस्वी के करीव रहा होगा। आपका प्रसिद्ध ग्रन्थ है महाभारत । यह सम्पूर्ण रूप मे उपलब्ध नही। केवल आदि, सभा, वन, विराट, सौप्तिक ये पाँच ही पर्व उपलब्ध है। मराठी प्राचीन साहित्य के इतिहासज्ञ और आलोचक स्व० पागारकर 'मुक्तेश्वर की वाणी में लोकोत्तरप्रसाद, दिव्य प्रोजस्विता और सृष्टिमौन्दर्यवर्णन की अनुपम शोभा' पाते है । मुक्तेश्वर का भाषा, देश और धर्म का अभिमान और अनुराग अलौकिक था। मुक्तेश्वर की सबसे बड़ी विशेषता है आख्यानक कविता का प्रारम्भ। यदि सन्त-साहित्य के ज्ञानेश्वर भित्तिचालक थे तो मुक्तेश्वर लौकिक साहित्य की नीव डालने वालो में मुख्य थे। मध्ययुग में पाकर मराठी काव्य जो अधिक लोकोन्मुख होता चला, उसके सबसे प्रमुख सहायक थे तुकाराम और रामदास ।
'सन्त तुकाराम' नामक चित्रपट से और हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा प्रकाशित डॉ० ह. रा० दिवेकर की 'तुकाराम' सम्वन्वी पुस्तक से अधिक परिचित, सक्षिप्त इस सन्तकवि की जीवनकथा है। १६०८ ई० में तुकाराम और रामदास दोनो का जन्म हुआ। पूना के पास इन्द्रायनी नदी के किनारे देहू गाँव में तुकाराम वोल्होवा आविले का जन्म हुआ। इनकी जाति शूद्र (कुनबी) थी और वनिये का धन्वा इनका कुल करता था। सावजी कान्होबा तुकाराम के दो भाई थे। तुकाराम ने दो बार विवाह किया-पर न अपनी दूकान और न गिरस्ती वे ठीक तरह से चला सके। दृष्टि उनकी ईश्वरभक्ति की ओर थी। तिस पर अकाल आया। तुकाराम वैराग्य की ओर पूर्णत झुक गये। तुकाराम ने अपनी सव रचना 'अभग' नामक भजनोपयोगी छन्द में की है । वह अधिकाश स्फुट है । नामदेव के समान ही भक्ति पर, पाता और उपालम्भ से भरी उनकी रचना है। परन्तु जहाँ नामदेव शुद्ध सन्त थे, तुकाराम ने कवीर के समान व्यावहारिक धर्म की दाम्भिकता को भी खूव आडे हाथो लिया है। कबीर की ही भांति तुकाराम की रचनाएँ लोकोक्ति रूप बन गई है। वास्तविक जीवन के ययार्थ दृष्टात लेकर बडे-बडे नीतितत्त्व सहजता से समझाने की उनकी कुशलता बहुत ही प्रशसनीय है । उनके जीवनकाल में उन्हे विरोधको का कम सामना न करना पड़ा। उनका निर्माणकाल १६५० ईस्वी माना जाता है ।
देशस्थ ब्राह्मणकुल मे, सूर्याजीपन्त कुलकर्णी के पुत्र रामदास, गोदानदी तीर पर जावगांव में जनमे। बचपन से वे काफी उद्धत थे। विवाह-प्रसग मे वे मडप से भाग गये। आगे चल कर आपकी शिवाजी राजा से भेट हुई और शिवाजी ने उन्हे गुरु माना, यह आख्यायिका प्रसिद्ध है। फिर तो आजीवन वे धर्मप्रचार करते रहे। उन्होने कई मठ स्थापित किये। रामभक्ति इनका मुख्य जीवनध्येय था। सतारा के पास 'परली' और 'चाफल' रामदास के प्रमुख स्थान थे। आपने अपना एक सम्प्रदाय चलाया। प्रापका सर्वोत्तम ग्रन्थ है 'दासबोध'। पहले सात दशक और वाद के तेरह दशको के बीच मे बहुत-सा रचना-कालान्तर वीता होगा, ऐसा माना जाता है। यह ग्रन्थ निवृत्तिवादी नहीं है, निर्गुणिए सन्तो की तरह यह ब्रह्म-माया की सूक्ष्म छानवीन में नहीं पड़ता। यह ग्रन्थ प्रोजस्वी भाषा मे पूर्णत प्रवृत्तिवादी है। इसका कारण तत्कालीन परिस्थिति थी। शिवाजी की राज्यस्थापना का वह काल था। मुस्लिम शासको से सीधा विरोध हिन्दू-जनता कर रही थी-उसमे धर्म एक प्रधान अस्त्र था। रामदाम की वाणी ने उस अस्त्र को धार दी। रामदास की वानी अटपटी है। वह व्याकरण-दोष, भाषा-दोप, छन्द-दोप, काव्य-दोष किसी की चिन्ता न करती हुई बरावर ऊर्जस्वल वेग से बहती है । अजीब-अजीव नये शब्द-प्रयोग उममें मिलते है। कई ग्रामीण शब्द भी उसमें चले आये है। परन्तु सम्पूर्णत लेने पर रामदास की रचना बहुत ही प्रभावशाली है। दासवोध में मूर्ख, पडित, कवि, भक्त, राजा सब के लक्षण गिनाये गये है। राजनीति पर उनका जो एक दशक है, जिसे मैने पूरा-का-पूरा 'आगामी कल' मे ‘एक कार्यकर्ता को पत्र' नामक शीर्षक से शब्दश अनुवाति कर प्रकाशित किया है, वह एक अमर सत्य से प्रज्वलित रचना है । इस 'दासबोध' के अलावा 'मनाचे श्लो रामायण के 'मुन्दरकाड' पीर 'युद्धकाड', 'आनन्दवनभुवन' नामक महाराष्ट्र के भूप्रदेश-सौंदर्य-वर्णन
'देखिये-मेरा 'मर्मी तुकाराम' नामक लेख, विश्वमित्र मासिक सन् '४० में प्रकाशित ।