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कुछ जैन अनुश्रुतिया और पुरातत्त्व
२४५ मेरु यात्रा कर ली है और अगर देवता सर्वसघ को ले जाने में असमर्थ है तो वे भी नही जायेगे। लज्जित होकर देवता ने तत्काल देवो सहित मेरु-मन्दिर बनाने की प्रतिज्ञा की, जहाँ साधु गणसघ के सहित पूजा कर सके। रातोरात देवता ने सुवर्ण का रत्नजटित स्तूप बनाया, जो देवमूर्तियो से और तोरण, माला, ध्वजा, और त्रिछत्र से अलकृत था और तीन मेखलामो मे विभाजित था। प्रत्येक मेखला मे चारो ओर रत्नजटित देवमूर्तियां थी, जिनमें प्रधान मूर्ति सुपार्श्वनाथ को थो। प्रात काल जव नगरवासी जागे तो स्तूप देखकर आपस मे लडने लगे। कुछ ने मूर्ति को वासुकि-लाछन स्वयभूदेव को बतलाया, दूसरो ने शेषशायी नारायण से इसकी तुलना की। औरो ने इसे ब्रह्मा, धरणीन्द्र, सूर्य या चन्द्र वतलाया। बौद्धो ने इसे जैन-स्तूप न मानकर बुद्धमडल (बुद्धउण्ड) माना । बीच-बचाव करने वालो ने लोगो को लडने से रोका और कहा कि स्तूप देवनिर्मित है और वही देव सब की शकाओ का समाधान करेगा। बाद में प्रत्येक मत के अनुयायियो से अपने आराध्य देव के चित्रपट के साथ एक निश्चित समय इकट्ठे होने को कहा गया और यह बतलाया गया कि देव प्रेरित घटना से वही पट वच जायेगा जिस देव की स्तूप में मूर्ति है और वाकी तितर-बितर हो जायेंगे। सव मतो के अनुयायी अपने देवताओ के चित्रपटो के साथ नवमी को इकट्ठा होकर गायन-वादन करते हुए ठहर गये। आधी रात में वडे जोरो का अन्धड वहने लगा, जिससे पट उड गये और लोगो ने चारो ओर भाग कर अपनी जान बचाई। केवल सुपार्श्व का चित्रपट जहां-का-तहां स्थित रहा। लोगो ने पटयात्रा निकाली। अभिषेक प्रारम्भ होने पर पहले अभिषेक करने के लिए लोगो में लडाई होने लगी। इस पर वृद्धो ने एक कुमारी कन्या द्वारा एक सन्दूक से नाम निकलवाने की वात कही और यह भी निश्चित किया कि गरीब हो या अमीर जिसका भी नाम पहले निकलेगा वही अभिषेक का अधिकारी होगा। यह घटना दशमी को घटी। एकादशी के दिन मूर्ति का दूध,दही,घी, केशर और चन्दन भरे हजारो घट से अभिषेक हुआ। अभिषेक में अलक्ष्य देवो ने भी भाग लिया। वाद मे हजारो ने अभिषेक करके मूर्ति को धूप-वस्त्र और अलकारो से पूजा की। साधुओ को वस्त्र, घृत और गुड की भिक्षा दी गई। द्वादशी को मूर्ति को माला पहनाई गई। इस प्रकार साधु धर्मरुचि और धर्मघोष मूर्ति की पूजा करते हुए चातुर्मास वहाँ विताकर अन्यत्र पारणा करके अपने कर्मों को छिन्न करते हुए मुक्ति को प्राप्त हुए और मथुरा उसी दिन से सिद्धक्षेत्र हो गई। साधुओ की मृत्यु से दुखी वह देवी अर्धपल्योपम जीवन विता कर मनुष्य योनि में पैदा हुई और एक पीढी के बाद दूसरी पीढी में जो भी देवियाँ उस स्थान पर आई कुवेर नाम से सम्वोधित हुई। पार्वस्वामी के जन्म तक स्तूप अनावृत पडा रहा। इसी बीच मे मयुरा के राजा ने लालच मे आकर स्तूप को तोड देने की और उसका माल-मता खजाने मे दाखिल कर देने कोआज्ञा दी। कुल्हाडे ले-लेकर आदमी उसे तोडने लगे, पर उसका कुछ न विगडा, प्रत्युत तोडने वालो को चोटें लगी। इस पर राजा ने स्तूप पर स्वय कुल्हाडा चलाया और कुल्हाडे ने हाथ से फिसल कर राजा का सिर काट दिया। इस पर देवो क्रुद्ध होकर स्वय प्रकट हुई और लोगो को पापी कहकर नष्ट कर देने की धमकी दी। धमकी से डर कर लोगो ने देवता को प्रारावना की और उसने नाश से बचने का उपाय जिन की आराधना वतलाई । उसी दिन से वृहत्कल्पसूत्र के अनुसार मथुरा में घर के पालो मे मगल चैत्य की स्थापना आरम्भ हुई। उस समय से प्रत्येक वर्ष सुपार्श्व के चित्रपट को रथयात्रा होती थी और केवल वही राजा जीवित रह सकता था जो गद्दी चढने पर विना भोजन किये हुए जिन की पूजा करता था। एक समय पार्श्वनाथ विहार करते हुए मथुरा पधारे और सघ को उपदेश देते हुए उन्होने दुषमा काल मे आने वाली कठिनाइयो और विपत्तियो को बताया। अहंत के चले जाने पर देवी कुवेर ने सघ को आमन्त्रित करके पार्श्वनाथ को दुषमा काल सम्बन्धी भविष्यवाणी बतलाई, जिसमे आने वाले राजा प्रजा सहित लालची वतलाये गये थे। देवी ने यह भी कहा कि उसका सर्वदा जीवित रह कर स्तूप की रक्षा करना असम्भव था, इसलिए उसने सघ से स्तूप को इंटो से ढक देने की आज्ञा चाही । सघ के सदस्य वाहर से पार्श्वनाथ की पूजा कर सकते थे और सरक्षिका देवीस्तूप के भीतर थी। महावीर से १३०० वर्षों से भी अधिक समय वाद (करीव ७५० ई० सन्) वप्पट्टि का जन्म हुआ। उन्होने तीर्थ का जीर्णोद्धार करवाया तथा पूजा की सुविधा के लिए अनेक उपवन, कूएँ और भडार बनवाए। गिरती हुई ईटो को देखकर उसने जब स्तूप मरम्मत के लिए खोलना चाहा तो देवी ने स्वप्न मे उसे ऐसा