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जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन
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ग्रन्थ है । श्रतएव न्यायविनिश्चयविवरण भी प्रमाणशास्त्र का ही ग्रन्थ है । उसमे अनेकान्तवाद की पुष्टि भी पर्याप्त मात्रा में की गई है । प्रज्ञाकरकृत प्रमाणवार्तिकालकार का उपयोग और खडन दोनो इसमे मौजद है ।
जिनेश्वर, चन्द्रप्रभ और अनन्तवीर्य
कुमारिल ने मीमामा श्लोकवार्तिक लिखा, धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक, अकलक ने राजवार्तिक और विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक लिखा । किन्तु श्वेताम्वराचार्यों में से किमी ने वार्तिक की रचना की 'न थी । यद्यपि हरिभद्र ने गद्य और पद्य दोनो में लिखा था । अभयदेव ने तो सन्मति को इतनी बडी टीका लिखी कि वह वादमहार्णव के नाम यात हुई । किन्तु वार्तिक नामक कृति का अभाव ही था । इसीसे कोई नासमझ यह प्राक्षेप करते होंगे कि श्वेताम्बरो के पास अपना कोई वार्तिक नही । इमी ग्राक्षेप के उत्तर मे जिनेश्वर ने वि० १०६५ के आसपास मालक्ष्म नामक न्यायावत ।र के वार्तिक की रचना की । इसमें अन्य दर्शनी के प्रमाणभेद और लक्षणो का खडन करके न्यायावतार समत परोक्ष के दो भेद स्थिर किये गये है । यह कृति प्रमेयरत्नकोप जितनी मक्षिप्त नही और न वादमहार्णव जितनी वडी । किन्तु मध्यमपरिमाण की है । विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक की तरह इसकी व्याख्या भी स्वोपज्ञ ही है ।
वि० म० ११४९ मे पौर्णमिकगच्छ के म्यापक प्राचार्य चन्द्रप्रभमूरि ने प्रमेयरत्नकोष नामक एक सक्षिप्त ग्रन्थ लिखा है । विस्तीर्णसमुद्र के श्रवगाहन में जो गक्त है ऐसे मन्दबुद्धि अभ्यासी के लिए यह ग्रन्थ नौका का कार्य देने वाला है । इसमें कुछ वादो को सरल और सक्षिप्त रुप मे ग्रथित किया गया है ।
चन्द्रप्रभसूरि के ही समकालीन प्राचार्य अनन्तवीर्य ने भी प्रमेयकमलमार्तंड के प्रखर प्रकाश से चकाचौंध हो जाने वाले अल्पशक्ति जिज्ञासु के हितार्थ सौम्यप्रभायुक्त छोटी-सी प्रमेयरत्नमाला का परीक्षामुख की टीका के रूप में गुम्फन किया ।
वादी देवसूरि
अपने समय तक प्रमाणशास्त्र और अनेकान्तवाद में जितना विकास हुआ था तथा अन्य दर्शन में जितनी दार्शनिक चर्चाएँ हुई थी उन सभी का सग्रह करके स्याद्वादरत्नाकर नामक वृहत्काय टीका वादी देवसूरि ने स्वोपज्ञ प्रमाणनयतत्त्वालोक नामक मूत्रात्मक ग्रन्थ के ऊपर लिखी । इस ग्रन्थ को पढने मे न्यायमजरी के समान काव्य का रसास्वाद मिलता है । वादीदेव ने प्रभाचन्द्रकृत स्त्रीमुक्ति और केवलिमुक्ति की साप्रदायिक चर्चा का भी श्वेताम्बर दृष्टि से उत्तर दिया है। उनका प्रमाणनयतत्वालोक परीक्षामुख का अनुकरण तो है ही, किन्तु नय परिच्छेद और वाद परिच्छेद नामक दो प्रकरण जो परीक्षामुख मे नही थे, उनका इसमें सन्निवेश इसकी विशेषता भी है । स्याद्वादरत्नाकर मे प्रमेयकमलमार्तंडादि अन्य ग्रन्थगत वादो का शव्दत या अर्थत उद्धरण करके ही वादि देवसूरि सन्तुष्ट नही हुए है किन्तु प्रभाचन्द्रादि अन्य श्राचार्यों ने जिन दार्शनिको के पूर्वपक्षो का उत्तर नही दिया था, उनका भी समावेश करके उनको उत्तर दिया है और इस प्रकार अपने समय तक की चर्चा को सर्वाश मे सम्पूर्ण करने का प्रयत्न किया है । इनका जन्म वि० ११४३ और मृत्यु १२२६ में हुई ।
हेमचन्द्र
वादी देवसूरि के जन्म के दो वर्ष बाद १९४५ में सर्वशास्त्रविशारद आचार्य हेमचन्द्र का जन्म और वादि देवसूरि की मृत्यु के तीन वर्ष वाद उनकी मृत्यु हुई है ( १२२९) । आचार्य हेमचन्द्र ने अपने समय तक के विकसित प्रमाणशास्त्र की सारभूत वाते लेकर प्रमाणमीमासा की सूत्रबद्ध ग्रन्थ के रूप में रचना की है । और स्वयं उसकी व्याख्या की है । हेमचन्द्र ने अपनी प्रतिभा के कारण कई जगह अपना विचारस्वातन्त्र्य भी दिखाया है । व्याख्या में भी उन्होने प्रति सक्षेप या प्रति विस्तार का त्याग करके मध्यममार्ग का अनुसरण किया है। जैनन्यायशास्त्र के