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जैन-साहित्य का प्रचार
४७१ हाई स्कूल व कॉलेज के पाठ्य-क्रम में अर्घ-मागधी भाषा को स्थान दिया गया है और मद्राम, वगाल आदि प्रान्तो में इस भाषा के अध्ययनकर्ता अच्छी मरया में है। इस कारण उनके अध्ययन के लिए उपयोगी हो सकें और उन्हें प्रेरणा दे सके, ऐसे जैन-ग्रन्थ समय-समय पर प्रकाशित किये जाने चाहिए और अल्प मूल्य मे जन-साधारण को सुलभ कराने का प्रवन्ध होना चाहिए।
जैन-साहित्य के कोष में इतनी विपुल सामग्री भरी पडी है कि वह साधारण व्यक्तियो से लेकर पडित तथा इतिहास, ज्योतिष एव भाषा-शास्त्र के अध्ययन करने वालो को वडी उपयोगी हो सकती है।
जैन-कथा-साहित्य अपने ढग का निराला साहित्य है। सस्कृत एव प्राकृत के विद्वानो का उससे खूब मनोरजन हो सकता है।
तर्क-साहित्य, दर्शन-साहित्य और न्याय-साहित्य की तो मानो जैन-साहित्य अमूल्य निधि है । स्याद्वाद, नय व सप्तभगो की निराली नीव पर खडा किया गया जैन-दर्शन का तर्क इतना गहरा जाता है कि वह मुक्ति के उपासक को अपूर्व स्प ने प्रभावित कर देता है। इस विषय के मामान्य कोटि मे लगा कर उच्चतम कोटि मे रक्खे जाने वाले अनेक ग्रन्य है। जैन-दर्शन की मूक्ष्मता का स्पष्ट दर्शन इनमे होता है।
आत्म-दृष्टि या अन्तर्मुख-वृत्ति के इच्छुक के लिए जैन-तत्त्वज्ञान एव उपदेश विषयक इतना सुन्दर साहित्य उपलब्ध है कि उसमें निमग्न होने वाला अवश्यमेव निजानन्द का अनुभव करने लगता है। इस विषय के ऐसे अनेक ग्रन्थ है, जिनमें कठिन-मे-कठिन मालूम होती आध्यात्मिक समस्या बडी ही सुगमता से समझाई गई है। परमाणुवाद का उल्लेख भी जन-ग्रन्यो मे प्राप्त होता है। तत्त्व-ज्ञान की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए कर्मवाद के बारे में जो जैनमाहित्य प्राकृत एव मस्कृत भाषा मे रचा गया है, वह अपूर्व, अति सूक्ष्म एव अद्वितीय है। इस माहित्य को देखने पर जैन-दर्शन को नास्तिक-दर्शन कहने वालो को जैन-दर्शन की परम आस्तिकता का पूरा-पूरा अनुभव हो सकता है । ऐमा कहने में अत्युक्ति नहीं है कि जैन-दर्शन का कर्मवाद विषयक साहित्य ससार मे अपनी सानी नहीं रखता।
___ जन-काव्य-साहित्य में रामायण, महाभारत जैसे सरल कोटि के ग्रन्थो से लगा कर नैषध व कादम्बरी जैसे गूढ ग्रन्थ भी पर्याप्त मस्या में मिलते है। इसी प्रकार व्याकरण, कोष, अलकार, छन्द-शास्त्र आदि किसी विषय मे भी जैन-माहित्य पिछड़ा हुआ नहीं है।
जैन-यागम-साहित्य का तो कहना ही क्या वह तो मानो उपर्युक्त मभी विषयो की साहित्य-गगा को जन्म देने वाला हिमालय है। उसमे सभी समा जाते हैं। उसमे सभी आविर्भूत होते है।
प्रश्न उठता है कि जब जैन-माहित्य इतना सर्वागपूर्ण है तो फिर उसका इतना अल्प प्रचार क्यो ? इसका उत्तर स्पष्ट है । तिजोरी में पड़े हुए हीरे का यदि कोई मूल्य न पूछे तो उसमें हीरे का या मूल्य न पूछने वाले का क्या दोप? दोष है उसे निरन्तर तिजोरी में मूद रखने वाले लोभी व्यक्ति का । ठीक यही हाल हमारे जैन-साहित्य का है। हमारी अन्व सग्रह-गीलता, अज्ञता एव सकुचितता ने मारी दुनिया की सम्पत्ति रूप इस जैन-साहित्य को ससार की निगाह से अोझल कर रक्खा है, लेकिन सौभाग्य से विद्वानो का ध्यान अब इस ओर आकृष्ट हुआ है। अत उसके प्रचार मे पूरा-पूरा सहयोग देना हमारे लिए अनिवार्य हो जाता है।
जैन-साहित्य के प्रचार के बारे में विचार करते समय ईसामसीह के मिशन का प्रचार करने के लिए हर एक भाषा मे छोटी-छोटी पुस्तकें तैयार करा कर अल्प मूल्य में बेचते हुए उपदेशक हमारी आंखो के सामने आते है । प्रचार का यह तरीका, उस मलिन अश को दूर करके, अपनाने लायक है । विना लोक-भाषा अर्थात् जहाँ प्रचार किया जाय, वहीं की भाषा, का सहारा लिये किसी भी धर्म या मत का पूर्ण रूप से प्रचार नहीं हो सकता। इस बात की सत्यता तो स्वय अर्धमागधी भापा के जैन-पागमो से ही प्रकट होती है । भगवान् महावीर स्वामी व भगवान् बुद्ध ने पडितो की मस्कृत भाषा को छोड कर अर्वमागधी व पाली भाषा को अपनाया। इसके पीछे यही भावना थी कि उनके उपदेशो को साधारण-से-साधारण व्यक्ति भी समझ सके।