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प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ
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रास्ते की कठिनाइयो के कारण प्राचीन काल मेयात्रा श्राज जैसी सरल एवसुलभ नही थी। इमी कारण सैकडो और हजारो व्यक्तियो के सम्मिलित यात्री-सघ निकलते थे। उनके साथ साधु भी रहा करते थे। साधुओ का प्राचार ही पैदल चलना है। श्रावक लोग भी अधिकाश पैदल ही चलते थे। रास्ते में छोटे-बडे ग्राम-नगरो मे ठहरना होता था और वहाँ के मदिरो के दर्शन किये जाते थे। विद्वान मुनि उस यात्री सघ का वर्णन करते समय मार्ग के ग्राम नगर नथा वहां के निवासियो का वर्णन भी लिखते थे। यह साहित्य भौगोलिक दृष्टि से जितना अधिक उपयोगी है, उतना अन्य कोई भी साहित्य नहीं है।
जैन तीर्थों सवधी साहित्य मे भारतीय ग्राम नगरो के इतिहास को अनमोल सामग्रो भरी पड़ी है, पर इस पोर अभी तक हमारे इतिहास-लेखको का ध्यान नहीं गया। अत भारत के ग्राम नगरी का वहत कुछ इतिहास अधकार में ही पडा है, जिसको प्रकाश मे लाने की परमावश्यकता है। जैन तीर्थों सवधी जितने साहित्य का पता चला है, उनकी सूची यहाँ दी जाती है । अभी जैन भडारो की पूरी खोज नही हुई है और बहुत सासाहित्य नप्ट भी हो चुका है। अत इस सूची को काम चलाऊ ही समझना चाहिए। स्वतत्र शोध करने पर और भी बहुत-सा साहित्य मिलेगा।
तीर्थों की प्राचीनता एव विकास मूल जैनागमो मे स्वर्ग में स्थित जिन-प्रतिमायो, तीर्थकरो की पादानो एव नदीश्वर द्वीप मे स्थित गाश्वन जिनप्रतिमानो की भक्ति एव पूजन का उल्लेख मिलता है, पर तीर्य रूप में किमी स्थान का उल्लेख नहीं मिलता। अत तीर्थ-भावना का विकास पीछे से हुआ ज्ञात होता है। आगमो की नियुक्तियो मे तीर्थ-भावना के सूत्र दृष्टिगोचर होते है। सर्वप्रथम प्राचाराग नियुक्ति (भद्रवाहु रचित)में कुछ स्थानो का नामोल्लेख पाता है। यद्यपि वहाँ तीर्थ शब्द नहीं है, फिर भी उन स्थानो को महत्त्व दिया गया है-नमस्कार किया गया है। अत इसे तीर्थ-भावना का प्रादि सूत्र कहा जा सकता है । वह उल्लेख इस प्रकार है
प्रहावय उजिते गयगग्गपए य धम्म चक्केय
पासरहा वत्तणय चमरुप्पाय च वदामि ॥४६॥ गजानपदे-दशार्णकूटवतिनि तथा तक्षशिलाया धर्मचके तथा अहिच्छत्राया पाश्वनाथस्य धरणेन्द्र महिमा स्थाने ।-प्राचाराग नियुक्ति व वृत्ति पत्राक ४१८ ।
नियुक्तियो के पश्चात् चूणि एव भाष्यो की रचना हुई। उनमे से निशीथचूणि मे नीर्यभूत कतिपय स्थानो का निर्देश इस प्रकार पाया जाता है
"उत्तरावहे धम्मचक्क, मथुराए देवणिम्मिो )मो। कोसलाए जियतसामि पडिमा, तित्यकराण वा जम्मभूमिओ। (निशीथचूणि पत्र २४३-२) ।
जैन मदिरो की सख्या क्रमश बढने लगी। अत भाष्य एव चूणि मे अष्टमी, चतुर्दशी, आदि पर्वदिनो में समस्तजैनमदिरो की वन्दना करने का विधान किया गया है और ऐसा न करने पर दड भी बतलाया गया है । यथा
'जैनतीर्थों के सम्बन्ध में प्रकाशित अन्थो की सूची परिशिष्ट में दी जा रही है। इससे तीर्थों की अधिकता एव एतद्विषयक सामग्री की विशालता का कुछ प्रामास हो जायगा। अप्रकाशित साहित्य का ढेर लगा पडा है। मेरे सग्रह में भी ५०० पृष्ठो को सामग्री सुरक्षित है, जिसे सम्पादन कर प्रकाशित करने का विचार है।
प्रकाशित साहित्य की सूची भी स्वतत्र पुस्तको की ही दी है। इनके अतिरिक्त जैन साहित्य सशोधक, जनयुग, कॉन्फरेन्स हेरल्ड, जनसत्यप्रकाश, पुरातत्त्व प्रादि अनेक पत्रो में प्राचीन रचनाए एव भ्रमणावि के लेख प्रकाशित हुए है।