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जैन-साहित्य का भौगोलिक महत्त्व निस्सकड मनिस्सकडे चेइए सवहिं थुई तिनि । वेल व चेइआणि व नाउ इक्किक्किया वा वि (भाष्य) अट्ठमी चउद्दसीसु चेइय सव्वाणि साहुणा सव्वे वदेयव्या नियमा अवसेस तिहिसु जहसत्ति । ए एव चेव अट्ठमी मादीसु चेइयाइ साहुणो वा जे अण्णाए
वसहीए ठिा ते न ववति मास लहु । (व्यवहार भाष्य व चूर्णि) महानिशीथ सूत्र में तीर्थयात्रा करने का स्पष्ट उल्लेख है
"अहन्नया गोयमा ते साहुणो त पायरिय भणति जहाण जइ भयव तुम पाणावहि ताण अम्हेहि तित्ययत्त करि (र) या चदप्पह सामिय दिया धम्मचक्क गतूणमागच्छामो। (महानिशीथ-५-४३५)।
तीर्थो के इतिहास की सामग्री जैन तीर्थों के ऐतिहासिक साधन दिगम्बर सम्प्रदाय की अपेक्षा श्वेताम्बर समाज में बहुत अधिक है । तीर्थों के सवध मे मौलिक रचनायो का प्रारम्भ १३वी शताब्दी से होता है। गुजरात के महान् मत्रीश्वर वस्तुपाल, तेजपाल के कारित जिनालयो वा उनकी प्रतिमाओं के प्रमग को लेकर उसी समय 'आवूरास' एव 'रेवतगिरि रासो' की रचना हुई। इसके पश्चात १४वी शताब्दी से अब तक तीर्थमालापो, चैत्यपरिपाटियो, सघवर्णन आदि के रूप में भाषा एव सस्कृत के काव्य संकडो की संख्या मे प्राप्त है। यहां उन सबकी सूची देना सभव नहीं है, पर उनपर सरसरी निगाह डाल ली जाती है, जिससे इस विशाल सामग्री का आभास पाठको को हो जाय।
जैन तीर्थों के सवध मे सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्य जिनप्रभसूरि विरचित 'विविध तीर्थकल्प है, जिसके महत्त्व के सवध में मुनि जिनविजय उक्त ग्रन्थ की प्रस्तावना के प्रारभ मे लिखते है
"श्री जिनप्रभसरि रचित 'कल्पप्रदीप' अथवा विशेषतया प्रसिद्ध 'विविध तीर्थकल्प' नाम का यह ग्रन्थ जैन साहित्य की एक विशिष्ट वस्तु है । ऐतिहासिक और भौगोलिक दोनो प्रकार के विषयो की दृष्टि से इस ग्रन्थ का वहुत कुछ महत्त्व है । जैन साहित्य मे ही नही, समस्त भारतीय साहित्य में भी इस प्रकार का कोई दूसरा ग्रन्थ अभी तक ज्ञात नही हुआ । यह अन्य विक्रम की १४वी शताब्दी मे, जैन धर्म के जितने पुरातन और विद्यमान प्रसिद्ध-प्रसिद्ध तीर्थस्थान थे, उनके सबध की प्राय एक प्रकार की गाइडवुक है। इनमे वर्णित उन-उन तीर्थों का सक्षिप्त रूप से स्थान-वर्णन भी है और यथाज्ञात इतिहास भी।"
इस प्रकार का सग्रहग्रन्थ तो दूसरा नहीं है, पर कतिपय तीर्थों का इतिहास उपदेशसप्तति' (सोमधर्मगणिरचित र० स० १५०३)मे पाया जाता है। स० १३७१ के शत्रुजय उद्धार का विस्तृत वर्णन समरा रास एव नामि नदनोद्धार प्रवध' (कक्कमूरिरचित स० १३६३) मे पाया जाता है। गाजय तीर्थ के कर्माशाहकारित 'जीर्णोद्धार' का सक्षिप्त वर्णन शत्रुजय तीर्थोद्धार प्रवध में है। फुटकर प्रवधसग्रहों में भी कई तीर्थों के प्रबन्ध प्राप्त होते है । लोकभापार
'सिंघी-जैन-प्रन्थमाला से प्रकाशित । 'श्री जैन प्रात्मानन्द सभा से प्रकाशित । 'हेमचन्द्र जैनग्रन्थमाला से प्रकाशित । *मुनि जिनविजय जी द्वारा सपादित, आत्मानद सभा, भावनगर से प्रकाशित । 'सिंघी जैन अन्यमाला से प्रकाशित 'पुरातन प्रबध सग्रह।