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जैन-साहित्य
प्रचार
मुनि न्यायविजय लगभग अठारह वर्ष पहले की बात है। हम पूना मे चातुर्मास कर रहे थे। उस समय हमने ज्ञान पचमी (कार्तिक शुक्ला पचमी) के उपलक्ष मे ज्ञान-पूजा के निमित्त जैन-साहित्य के सभी विषय के ग्रन्यो को अच्छी तरह प्रदर्शिनी के रूप में रख कर जैन व जैनेतर जनता को जन-साहित्य के दर्शन करने का अवसर दिया था। हमारा यह समारम्भ पूर्ण सफल हुआ। इस अवसर पर पूना के जैनेतर विद्वान व कुमारी जान्सन हेलन आदि आये थे। इन सव को जन-साहित्य की इतनी विपुल सामग्री देख कर अति प्रसन्नता हुई। उस समय एक प्रोफेसर महाशय के कहे हुए शब्द हमे ग्राज भी याद है । उन्होने कहा था, "जैन-साहित्य इतना अधिक है, यह तो हमें आज ही ज्ञात हुआ है। हमने वैदिक साहित्य खूब पढा है। हमारे लिए अव यह चर्वित चर्वण जैसा हो गया है । अव तो हम मे जैन-साहित्य पढने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई है। यहां जैसा प्रदर्शित किया गया है वैसा प्राचीन जैन-आगम-साहित्य, जैन-कथा-साहित्य, ज्योतिष विषयक जैन-साहित्य इत्यादि प्राचीन व अर्वाचीन साहित्य हमे मिल सके, ऐसा प्रवन्ध होना चाहिए।"
___ उन महानुभाव के ये शब्द हमारा ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट करते है कि जैन-साहित्य के प्रचार के लिए भगीरथ प्रयत्न करने की आवश्यकता है। जैन-साहित्य को विश्व के सम्मुख रखने का इम' युग मे अच्छा अवसर है, पर इसके लिए जैन-साहित्य के (जैन आगम से लगा कर जैन-कथा-साहित्य पर्यन्त के) हर एक विषय के ग्रन्थो को नवीन सशोधन-पद्धति से सशोधित-सम्पादित करके सुन्दर रूप में मुद्रित करना अपेक्षित है। प्रत्येक ग्रन्थ के साथ उसमे प्रयुक्त जैन-पारिभाषिक शब्दो का परिचय एव उस ग्रन्थ का भाव राष्ट्र-भाषा हिन्दी एव अन्तर्राष्ट्रीय भाषा में दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक दृष्टि से भी उस ग्रन्थ का महत्त्व विस्तार से समझाया जाना चाहिए।
___इस दिशा मे प्रयत्न करते समय मौलिक जैन-साहित्य के रूप मे जो आगम ग्रन्य विद्यमान है, उनके आदर्श मुद्रण और प्रकाशन की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। जो आगम ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके है वे वर्तमान सशोधनसम्पादन की दृष्टि से अपूर्ण प्रतीत होते है। इनके सुन्दर व सर्वांग-पूर्ण सस्करण प्रकाशित होने चाहिए। आगम के प्रकाशन के समय उसकी पचागी (भाष्य, नियुक्ति, टीका आदि) को भी विलकुल शुद्ध रूप में प्रकाशित करना चाहिए और यथासम्भव उनके विषय में गम्भीर पर्यालोचन करना चाहिए। मुझे विश्वास है कि जैन-आगम-साहित्य के प्रत्येक पहलू पर जितना अधिक ध्यान दिया जायगा, उतना ही अधिक जैन-सस्कृति का मौलिक रूप प्रकट हो सकेगा।
जयधवला, महाधवला एव अन्य प्राकृत ग्रन्यो का भी इसी प्रकार आदर्श प्रकाशन होना चाहिए तथा संस्कृत एव प्रान्तीय भाषाओं में प्राप्त जैन-साहित्य सुचारु रूप से प्रकाशित होना चाहिए।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि किसी भी जैन-ग्रन्थ को प्रकाशित करते समय यह खयाल रखना चाहिए कि वह ग्रन्थ परम्परा से जैनधर्म को मानने वाले किसी एक समाज के लिए ही प्रकाशित नहीं किया जा रहा है। बल्कि जैनेतर जिज्ञासुमो की दृष्टि में रख कर ग्रन्थो का प्रकाशन होना चाहिए। भाव और भाषा इतने स्पष्ट और सरल होने चाहिए कि जनेतर बन्धु को उसे समझने में कोई कठिनाई न हो। हम देखते है कि धर्मपालन की दृष्टि से भले ही न हो, पर एक मनन-योग्य साहित्य की दृष्टि से जैन-साहित्य की ओर न केवल जैनेतर भारतीय विद्वान ही आकृष्ट हुए है, प्रत्युत यूरोप और अमरीका के विद्वानो का ध्यान भी उधर गया है। उनके अध्ययन के लिए प्रामाणिक एव सुवोध सामग्री प्राप्त कराने की दिशा मे प्रयत्न होना आवश्यक है।