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प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ सिद्धपदेहि महत्थ बधोदयसतपयडिठाणाणि । वोच्छ सुण सखेवेण णिस्सद दिद्विवादादो ॥२॥ प्राकृतपच० नत्वाऽहमहतो भक्त्या घातिकल्मषघातिन । स्वशक्त्या सप्तति वक्ष्ये बधभेदावबुद्धये ॥१॥ बन्धोदयसत्त्वाना सिद्धपदैदृष्टिवादपाथोधे । स्थानानि प्रकृतीनामुद्धृत्य समासतो वक्ष्ये ॥२॥ संस्कृतपंच
इगिवीस पणुवीस सत्तावीसढवीसमुगुतीस । एए उदयद्वाणा देवगइसजुया पच ॥१८॥
___ २१२२।२७।२८।२६। प्राकृतपच० अस्त्येकपचसप्ताष्टनवाग्रा विशति. क्रमात् । नाम्नो दिवौकसा रीताबुदये स्थानपचकम् ॥२०॥
२१।२।२७।२८।२९ सस्कृतपच०
अह सुठिय सयलजयसिहर अरयणिरुवमसहावसिद्धिसुख । अणिहमव्वाबाह तिरयणसार अणुहवति ॥५००। प्राकृतपच० रत्नत्रयफल प्राप्ता निर्वाध कर्मवर्जिताः। निर्विशति सुख सिद्धास्त्रिलोकशिखरस्थिता. ॥४७७॥ सस्कृतपच०
उपरिलिखित अवतरणो से यह वात तो पूर्ण रूप से निश्चित हो जाती है कि अमितगति के पचमग्रह का आधार प्राकृत पचसग्रह है। यद्यपि यहां यह प्राशका की जा सकती है कि सभव है कि सस्कृत पचसग्रह को सामने रखकर प्राकृत पचसग्रह की रचना की गई हो, तथापि इसके विरुद्ध कितने ही प्रमाण है, जिनमे प्राकृत पचसग्रह ही पूर्वकालीन सिद्ध होता है। उनमें से सबसे बडा प्रमाण धवला टीका में इस ग्रथ की गाथाओ का 'उक्त च' के रूप में पाया जाता है। इतना ही नही, एक स्थल पर तो धवलाकार ने 'तह जीवसमासए वि उत्त' कह कर 'छप्पचणव विहाण' इत्यादि गाथा उद्धृत की है, जो कि स्पष्टत अपनी अन्य गाथाओ के समान प्राकृत पचसग्रह के जीवसमासनामक प्रथम प्रकरण की १५९वी गाथा है।
(२) शतक और सप्ततिका नाम क्यों ?
सस्कृत पचसग्रह की रचना प्राकृतपंचसग्रह के आधार पर हुई है, इतना स्पष्टत ज्ञात हो जाने पर भी यह सन्देह तो अवशिष्ट रहही जाता है किपचसग्रह के चौथे प्रकरण का नाम शतक और पांचवे का नाम सप्ततिका क्यो रक्खा गया? भारतीयसाहित्य मे पद्यसख्या के आधार पर अन्य के नाम रखने को प्राचीन परिपाटी अवश्य रही है मगर पचसग्रह के इन दोनो ही प्रकरणो की पद्यसख्या इतनी अधिक है कि सहसा वैसी कल्पना करने का विचार मन मे नही उठता।
"देखो षट्खडागम, पुस्तक ४, पृष्ठ ३१५, उक्त पृष्ठ पर 'जीवसमासाएं' पाठ अशुद्ध छपा है, 'जीवसमासए पाठ ही वहा होना चाहिए। लेखक