________________
जैन साहित्य
४४६ अश है ही नहीं। असल में सग्रह और सकलन चाहे जब क्यो न किया जाय उसमें प्राचीन अशोका यथासम्भव सुरक्षित रक्खा जाना ही अधिक सगत जान पडता है। और फिर वल्लभी की सभा ने पाटलिपुत्र और मथुरा वाली सभा के सकलन काही सस्कार या जीर्णोद्धार किया था, कुछ नया सकलन नहीं किया था। .
दिगम्बरो के मत से भगवान महावीर की दिव्यवाणी को अवधारण करके उनके प्रथम शिष्य इन्द्रभूति (गौतम) गणवर ने अग-पूर्व ग्रन्थो की रचना की। फिर उन्हें अपने सधर्मा सुधर्मा (लोहार्य) को और सुधर्मा स्वामी ने जम्बूस्वामी को दिया। जम्बूस्वामी से अन्य मुनियो ने उनका अध्ययन किया। यह सव महावीर स्वामी के जीवनकाल में हुआ। इसके बाद विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रवाहु ये पांच श्रुतकेवली हुए । इन्हें पूर्वोक्त अग और पूर्वो का सम्पूर्ण ज्ञान था। महावीर-निर्वाण के ६२ वर्प वाद तक जम्बूस्वामी का और उनके १०० वर्ष वाद तक भद्रवाहु का समय है । अर्थात् दिगम्वर शास्त्रो के अनुसार महावीर-निर्वाण के १६२ वर्ष बाद तक अग और पूर्वो का अस्तित्व रहा।
___ इसके बाद के क्रमश लुप्त होते गये और वीर-निर्वाण ६८३ तक एक तरह से सर्वथा लुप्त हो गये । अन्तिम अगवारी लोहार्य (द्वितीय) वतलाये गये हैं, जिनको केवल एक प्राचाराग का ज्ञान था।
इसके वाद अग और पूर्वो के एकदेश के ज्ञाता और उस एकदेश के भी अशो के ज्ञाता आचार्य हुए, जिनमें सौराष्ट्र के गिरिनगर के घरसेनाचार्य का नाम उल्लेखनीय है । उन्हे अग्रायणीपूर्व के पचमवस्तुगत महाकर्मप्राभृत का ज्ञान था। इन्होने अपने अन्तिम काल में आन्ध्रदेश से भूतवलि और पुष्पदन्त नामक शिष्यो को बुला कर पढाया
और तव इन शिष्योने विक्रम की लगभग दूसरी शताब्दी मे षट्खडागम तथा कषायप्राभूत सिद्धान्तो की रचना की। ये सिद्धान्त-ग्रन्थ वडी विशाल टीकाप्रो के सहित अव तक सिर्फ कर्णाटक के मूडविद्री नामक स्थान में सुरक्षित थे, अन्यत्र कहीं नहीं थे। कुछ ही समय हुआ इनमें से दो टीका-ग्रन्थ धवला और जय-धवला वाहर आये है और उनमें से एक वीरसेनाचार्यकृत धवला टीका का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया है। इस टीका के निर्माण का समय शक संवत् ७३८ है।
ऐसा मालूम होता है कि श्वेताम्बर-मान्य अग-अन्य एक काल के लिखे हुए नही हैं । सम्भवत इनकी रचना महावीर-निर्वाण के अव्यवहित वाद से लेकर कुछ-न-कुछ देवद्धिगणि के काल तक होती रही होगी। इसका एक प्रमाण यह भी है कि प्रार्य सुधर्म,पार्य श्याम और भद्रवाहु आदि महावीर के परवर्ती अनेक प्राचार्य प्रगो और उपागो के रचयिता माने जाते हैं।
___ सम्पूर्ण जैनागम छ भागो में विभक्त है-(१) वारह अग, (२) वारह उवग या उपाग, (३) दस पइण्णा या प्रकीर्णक, (४) छ छेयसुत्त या छेदसूत्र, (५) दो सूत्र-ग्रन्थ, (६) चार मूल सुत्त या मूल सूत्र । ये सभी ग्रन्थ आप या अर्ध-मागधी प्राकृत में लिखे हुए है। कुछ प्राचार्यों के मत से वारहवां अग दृष्टिवाद सस्कृत में था । वाक़ी जैनसाहित्य महाराष्ट्री प्राकृत, अपभ्रश और सस्कृत में है।
अंग और उपागपहला अगायारगसुत्त या आचाराङ्ग सूत्र है, जो दो विस्तृत श्रुत-स्कयो में जैन मुनियो के कर्तव्याकर्तव्यप्राचार का निर्देश करता है। विद्वानो के मत से इसका प्रथम श्रुतस्कन्ध दूसरे से पुराना होना चाहिए। वौद्ध माहित्य में जिस प्रकार गद्य-पद्यमय रचनाएं पाई जाती है, ठीक वैसी ही इसमें भी है। जैन और वौद्ध शास्त्रो में जो अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है, वह यह है कि जहाँ वौद्ध सघ के नियमो में वहुत-कुछ ढील दिखलाई पडती है, वहां जैन-सघ के नियमो और अनुशासनो में वडी कडाई की व्यवस्था है। ,
'तेनेन्द्रभूतिगणिना तहिव्यवचोऽवबुध्य तत्त्वेन । ग्रन्थोऽङ्गपूर्व-नाम्नाप्रतिरचितो युगपदपराह्न। ६६-श्रुतावतार