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प्रेमी-अभिनंदन ग्रंथ
"तदीय शिष्योगण भुच्चर्यत्वमः सुषर्मानामाऽस्य परपराया । बभूव शाखा किल वज्रनाम्ना, चद्र कुल चद्र कलेव निर्मल ॥२॥ तद्गच्छेत्वभिधानत: खरतरे, ये स्तभनाधीश्वरो ।
तुमध्यात्प्रकटी कृत. पुनरपि स्नानोदका द्रुगगता ॥
स्थानांगादि नवांगसूत्र निवृत्तिर्नव्या क्षता । श्रीमतोऽभयदेवसूरिगुरवो जाता जगद्विश्रुता ॥ ३ ॥ यो योगिनीत्यो जगृहे वदौ च चरान् जाग्रदनेनेक विद्य ।
पचापि पीरान् स्ववशी चकार युगप्रधानो जिनरत्नसूरि ॥४॥
पुनरपि यस्मिनगच्छे बभूव जिन कुशल नाम सूरिवर । यस्य स्तूपनिवेशामुयश पुजाद्रवाभाति ॥५॥ तत्पट्टानुक्रमत' श्री जिनचन्द्रसूरि नामान । जाता जुगप्रधाना दिल्लीपति पातसाहि कृता ॥६॥
कबर रजन पूर्व द्वादश स्तवेषु सर्वदेशेषु स्फुटतरमारपटह. प्रवादितो यौश्च सूरिवरं ॥ ७॥ यद्वारे किल कर्मचद सचिव. श्राद्वोऽभवद्दीप्तिमान् । येन श्री गुरुराज नदि महमिद्रव्य व्ययोनिर्मिमे । कोटे' पादयुज. शराप्रिशमये दुर्भिक्ष वे लाकुले । मन्त्राकार विधानतो बहुजना सजीविता वेन च ॥८॥ यद्वारे मुनरत्न सोन जिसिवा श्राद्वौ जगद्विश्रुतो । यात्या राणपुरस्य १ खतगिरेः २ श्री अर्बुदस्य स्फुट । गौड़ी श्री शत्रुजयस्य च महान् सघोनद्य. कारितो । गच्छे लभनिका कृत्वा प्रतिपुर रुक्मार्थमेकपुन• ॥ ॥ तेषा श्री जिनचन्द्राणा शिष्य. प्रथमतोऽभवत् । गणि सकलचद्राख्यो रोहडान्वय भूषण ॥१०॥ तच्छिष्य समयसुन्दर सदुपाध्यायै विनिर्मित व्याय. कल्पलता नामाय ग्रथचक्रे प्रयत्नेन ॥ ११॥
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लूणकर्णसरो प्रामे प्रारभा कर्तुमादरात । वर्षमध्ये कृतापूर्णा मया चैवारिणीपुरे ॥१७॥ राज्ये श्री जिनराज सूरि सुगुरोर्बुध्याजितस्वर्गुरो भाग्य भुविलोक विस्मयकरसोभाग्यमत्युद्भुत । कीर्तिस्तु प्रसरीसरीति जगति प्रौढ़ प्रतापोदया । दाशीत्युग्रतमा कृपातनुभृता दारिद्र्य दुःखापहा ॥ १८ ॥ श्री मद्भान बडे चपुडर गिरी, श्री मेडताया पुन | श्री पल्ली नगरे च लौद्रनगरे प्रौढा प्रतिष्ठा कृता । द्रव्यं भूरि तरव्ययीकृत महोश्राद्धं महत्युत्सवो । राजते जिनराजसूरि गुरुवस्ते सात भूतले ॥२६॥ तद्गुरुणा प्रसादेन मया कल्पलता । कल्पसूत्रमिद यावत्तावन्नदतुसा पिहि ॥ २१ ॥ इति ॥”
इससे स्पष्ट है कि वज्रशाखा-चन्द्रकुल- खरतरगच्छी अभयदेवसूरि की परम्परा में श्री जिनरलसूरि श्रादि श्राचार्य हुए, जिनमें से जिनचन्द्रसूरि वादशाह अकबर द्वारा 'युगप्रधान' घोषित किये गये। उन्होने कई वादियो को परास्त करके कवर का मनोरजन किया था। उनके उपदेश से कर्मचन्द्र सचिव ने धर्म-कार्य में अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग किया और दुर्भिक्ष के समय दान देकर अनेक प्राणियो की रक्षा की । आचार्य रत्नसोम के निमित्त से राणपुर, रैवतगिरि ( गिरिनार ), आबूपर्वत, गौडी (पार्श्वनाथ ) और शत्रुजय के यात्रासघ निकाले गये । इनमें श्री जिनचन्द्र सूरि के प्रतिशिष्य और सकलचन्द्र गणि के शिष्य उपाध्याय समयसुन्दर ने यह 'कल्पलता — कल्पसूत्र – व्याख्या' रची । लूनकर्ण ( लूनी ? ) ग्राम में इसे प्रारंभ करके एक वर्ष में ही पारिणीपुर (?) में रचकर समाप्त किया। उपरात जिनराजसूरि की महिमा का उल्लेख है । विज्ञ पाठक इस एक उदाहरण से ही प्रशस्ति के महत्त्व को समझ सकते हैं ।
प्रशस्ति के अनुरूप ही जिन मूर्तियो, यत्रो, और मंदिरो के शिलालेख भी इतिहास के लिए बहुमूल्य सामग्री है । यों तो जिनमूर्तियां और मंदिर ही भारतीय स्थापत्य और मूर्तिकला के इतिहास के लिए विशेष अध्ययन की वस्तु है, परन्तु उनसे संबधित लेख तो अद्वितीय है । खेद है, अभी तक इन लेखो को संग्रह करने का कोई भी व्यवस्थित उद्योग नही हुआ है तो भी श्वेताम्बर समाज के प्रसिद्ध विद्वान स्व० श्री पूर्णचन्द्र जी नाहर, स्व० श्री विजयधर्मसूरि और मुनि