________________
४५८
प्रेमी-अभिनदन-प्रथ का इतिहास लिखते समय विद्वानो ने आंकी ही है । भूगोल के अध्ययन के लिए और भारतीय भूगोल की ऐतिहासिक प्रगति को जानने के लिए जैन साहित्य अनूठा है। उसमें उपलब्ध दुनिया का और उससे भी कही अधिक विस्तृत लोक का वर्णन है।
___ सस्कृत भाषा मे लिखे हुए जैन पुराण ग्रन्थ अति प्राचीन है । उनमे अपेक्षाकृत बहुत अधिक ऐतिहासिक सामग्री सोधी-सादी भाषा में सुरक्षित है । अलबत्ता कही-कही पर उसमें धार्मिक श्रद्धा की अभिव्यजना कर्मसिद्धान्त की अभिव्यक्ति के लिए देखने को मिलती है।
___ जैन पुराणो के साथ ही जैनकथाप्रथो के महत्त्व को नही भुलाया जा सकता, जिनमें बहुत सी छोटी-छोटी कथाएं सगृहीत है। ऐसे कथानथ प्राकृत, सस्कृत, अपभ्रश, हिन्दी, कन्नड आदि भाषाओ मे मिलते हैं। इनमें कोईकोई कथा ऐतिहासिक तत्त्व को लिये हुए है। किसी में भेलसा (विदिशा) पर म्लेच्छो (शको) के ऐतिहासिक आक्रमण का उल्लेख है तो किसी में नन्द राजा और उनके मन्त्री शकटार आदि का वर्णन है। किसी में मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त और उनके गुरु श्रुतकेवली भद्रबाहु का चरित्र-चित्रण किया गया है, तो किसी अन्य में उज्जैन के गर्दभिल्ल
और विक्रमादित्य का वर्णन है । साराश यह कि जैनकथानथो मे भी बहुत सी ऐतिहासिक सामग्री बिखरी पडी है । महाकवि हरिषेण विरचित 'कथाकोष' विशेषरूप से द्रष्टव्य है।
जैन साहित्य में कुछ ऐसे काव्य एव चरित्रग्रन्थ भी है, जो विशुद्ध ऐतिहासिक है। उनमे ऐतिहासिक महापुरुषो काही इतिहास अथवद्ध कियागयाहै। इस प्रकार का पर्याप्त साहित्य श्वे. जैन समाज द्वारा प्रकाशित कियाजाचुका है। 'ऐतिहासिक जैनकाव्यसग्रह', 'ऐतिहासिक रास सग्रह' आदि पुस्तकें उल्लेखनीय है । 'चित्रसेन-पद्मावती' काव्यग्नथ में हमें कलिंग-सम्राट् खारवेल के पूर्वजो का इतिवृत गुम्फित मिलता है, जिसका ऐतिहासिक दृष्टि से सूक्ष्म अध्ययन वाछनीय है । अन्तिम मध्यकालीन भारत की सामाजिक स्थिति का परिचय गुणमाला चौपई' अथवा 'ब्रह्मगुलाल चरित्र' आदि ग्रथो से मिलता है । 'गुणमाला चौपई' में, जिसकी एक प्रति धारा के प्रसिद्ध 'जैन सिद्धान्त भवन' में सुरक्षित है, गोरखपुर के राजा गजसिंह और सेठपुत्री गुणमाला की कथा वर्णित है । गोरखपुर तव इन्द्र को अलका-नगरी-सा प्रतीत होता था, जैसा कि कवि खेमचद के उल्लेख से स्पष्ट है
'पूरवदेस तिहा गोरषपुरी, जाण इलिका आणि नै धरी। वार जोयण नगरी विस्तार, गढ-मठ मदिर पोलि पगार ॥५॥
x
नगर माहि ते देहरा घणा, कोई न कोई शिव-तणां। माहि विराज जिनवर देव, भविणय सारै नितप्रत सेव ॥१०॥
'प्रो० ए० सिंह और प्रो० वि० भू० दत्त कृत "हिस्ट्री प्रॉव इडियन मैथेमेटिक्स" देखिये। प्रो० सिंह ने 'घवलाटोका' को भूमिका में लिखा है, “यथार्यत. गणित और ज्योतिष विद्या का ज्ञान जैन मुनियों की एक मुख्य साधना ममझी जाती थी। महावीराचार्य का गणितसारसग्रह-प्रय सामान्य रूप-रेखा में ब्रह्मगुप्त, श्रीधराचार्य भास्कर और हिन्दू गणितज्ञों के अन्यों के समान होते हुए भी विशेष वातों में उनसे पूर्णत. भिन्न है। धवला में वणित अनेक प्रक्रियाएँ किसी भी अन्य ज्ञात अथ में नहीं पाई जातीं!"
'हमारा 'भगवान पार्श्वनाथ पृ० १५४-२००। 'पूर्वोक्त कथाकोष, पृ० ३४६ । *हरिषेण कथाकोष (सिंघीग्रथमाला), पृ० ३१७ । 'कालककथा-सजइ०, भा० २, खंड २, पृ० ६२-६४ । 'अनेकान्त', वर्ष ५, पृ० ३९५-३९७ एवं वर्ष ६, पृ० ६५-६७ ।