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• प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ वारहवी शताब्दी में प्रसिद्ध जैन आचार्य हेमचन्द्र का प्रादुर्भाव हुआ। इन्होने दर्शन, व्याकरण और काव्य तीनो में समान भाव से कलम चलाई। इन नाना विषयो मे, नाना भाषामो मे और नाना मतो में अगाध पाडित्य प्राप्त करने के कारण इन्हें शिष्यमडली 'कलिकालसर्वज्ञ' कहा करती थी। इस शताब्दी में और इसके बाद भी जैनग्रन्थो और टीकामो की वाढ-सी आ गई। इन दिनो की लिखी हुई सिद्धान्त-ग्रन्थो की अनेक टीकाएँ वहुत ही महत्त्वपूर्ण है। असल में यह युग ही टीकामो का था। भारतीय मनीषा सर्वत्र टीका में व्यस्त थी।
विमलसूरि का पउमचरिय (पद्मचरित) नामक प्राकृत काव्य, जो शायद सन् ईसवी के प्रारम्भकाल में लिखा गया था, काफी मनोरजक है। इसमें राम की कथा है, जो हिन्दुनो की रामायण से बहुत भिन्न है । ग्रन्थ मे वाल्मीकि को मिथ्यावादी कहा गया है। इस पर से यह अनुमान करना असगत नही कि कवि ने वाल्मीकि रामायण को देखा था। दशरथ की तीन रानियो में कौशल्या के स्थान पर अपराजिता नाम है, जो पद्म या राम की माता थी। दशरथ के बडे भाई थे अनन्तरथ । ये जैन साधु हो गये थे, इसीलिये दशरथ को राज्य लेना पड़ा। जनक ने अपनी कन्या सीता को राम से व्याहने का इसलिए विचार किया था कि राम (पद्म) ने म्लेच्छो के विरुद्ध जनक की सहायता की थी। परन्तु विद्याधर लोग झगड पडे कि सीता पहले से उनके राजकुमार चन्द्रगति की वाग्दत्ता थी। इसी झगडे को मिटाने के लिए धनुषवाली स्वयवर सभा हुई थी। अन्त में दशरथ जैन भिक्षु हो गये। भरत की भी यही इच्छा थी, पर राम और कैकेयी के प्राग्रह से वे तव तक के लिए राज्य सँभालने को प्रस्तुत हो गये जव तक पद्म (राम) न लौट आये। आगे की कथा प्राय सव वही है । अन्त में राम को निर्वाण प्राप्त होता है। यहां राम सम्पूर्ण जैन वातावरण में पले है।
सन् ६७५ में रविषेण ने सस्कृत में जो पद्मचरित लिखा वह विमल के प्राकृत पउमचरिय का प्राय सस्कृत रुपान्तर या अनुवाद है । गुणभद्र भदन्त के उत्तरपुराण के ६८वें पर्व में और हेमचन्द्र के त्रिषष्टिगलाका-पुरुप-चरित के ७३ पर्व में भी यह कथा है। हेमचन्द्र की कृति को जैन-रामायण भी कहते हैं। रामायण की भांति महाभारत की कथा भी जैन ग्रन्यो में बार-बार पाई है। सबसे पुराना सघदास गणिका वसुदेवहिण्डि नामक विशाल अन्य प्राकृत भाषा में है और संस्कृत में शायद पुन्नाट-सघ के प्राचार्य जिनसेन का ६६ सर्गी हरिवशपुराण है। सकलकीर्ति आदि और भी अनेक विद्वानो ने हरिवंशपुराण लिखे हैं। इसी तरह १२०० ई० में मलघारि देवप्रभसूरि ने पाण्डवचरित नामक एक काव्य लिखा था, जो महाभारत का सक्षिप्त रूप है । १६वी शताब्दी में शुभचन्द्र ने एक पाण्डवपुराण, जिसे जैन महाभारत भी कहते हैं, लिखा था। अपभ्रश भाषा में तो महापुराण, हरिवंशपुराण, पद्म-पुराण स्वयभू पुष्पदन्त आदि अनेक कवियो ने लिखे है।
जैनपुराणों के मूल प्रतिपाद्य विषय ६३ महापुरुषो के चरित्र है । इनमें २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ६ वलदेव, ६ वासुदेव और प्रतिवासुदेव हैं। इन चरित्रो के आधार पर लिखे गये ग्रन्थो को दिगम्बर लोग साधारणत 'पुराण' कहते हैं और श्वेताम्वर लोग 'चरित'। पुराणों में सबसे पुराना त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण (सक्षेप में महापुराण) है, जिसके आदिपुराण और उत्तरपुराण, ऐसे दो भाग है । प्रादिपुराण के अन्तिम पांच अध्यायो को छोड कर वाकी के लेखक जिनसेन (पचस्तूपान्वयी) है तथा अन्तिम पांच अध्याय और समूचा उत्तरपुराण उनके शिष्य गुणभद्र का लिखा हुआ। पुराणो की कथाएँ वहुधा राजा श्रेणिक (विम्बिसार) के प्रश्न करने पर गौतम गणधर द्वारा कहलाई गई है। महापुराण का रचनाकाल शायद सन् ईसवी की नवीं शताब्दी है । इन पुराणो से मिलते हुए श्वेताम्बर चरितो में सव से प्रसिद्ध है हेमचन्द्र का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, जिसे प्राचार्य ने स्वय महाकाव्य कहा है। इस प्रश की बहुतसी कहानियां यूरोपियनों के मत से विश्व-साहित्य में स्थान पाने योग्य है । वीरनन्दिका चन्द्रप्रभचरित, वादिराज का पार्श्वनाथचरित, हरिचन्द्र का धर्मशर्माभ्युदय, धनजय का द्विसन्धान, वाग्भट का नेमिनिर्वाण, अभयदेव का जयन्तविजय, मुनिचन्द्र का शान्तिनाथचरित, आदि उच्च कोटि के महाकाव्य है । ऐसे भी चरित है, जो ६३ पुराणपुरुषो के अतिरिक्त अन्य प्रद्युम्न, नागकुमार, वराग, यशोधर, जीवधर, जम्बूस्वामी, जिनदत्त, श्रीपाल आदि महात्माओ