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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ जयशेखरसूरि ने ७२६ पद्यो में जम्बूस्वामी के चरित का निर्माण किया है। इनके सिवाय पद्मसुन्दर आदि विद्वानो ने भी जम्बूस्वामी के चरित पर प्रकाश डाला है। इनमें 'जम्बूपयन्ना' का काल अनिश्चित है और वह ग्रन्थ भी अभी तक प्रकाश मे नही पाया है। इसके सिवाय शेष सब ग्रन्थ प्रस्तुत जम्बूस्वामीचरित से वाद की रचनाएँ है । उभय सम्प्रदाय के इन चरित ग्रन्थो मे वर्णित कथा मे परस्पर कुछ भेद जस्र पाया जाता है । उस पर यहां प्रकाश डालना उचित नहीं।
किसी ग्रन्थ की रचना किसी भी भाषा मे क्यो न की गई हो, परन्तु उस भापा का प्रोढ विद्वान कवि अपनी आन्तरिक विशुद्धता, क्षयोपशम की विशेषता और कवित्वशक्ति से उस गथ को इतना अधिक आकर्षक बना देता है कि पढने वाले व्यक्ति के हृदय में उस ग्रन्थ और उसके निर्माता कवि के प्रति प्रादरभाव उत्पन्न हुए विना नहीं रहता। ग्रन्थ को सरस और सालकार बनाने में कवि की प्रतिभा और आन्तरिक चित्तशुद्वि ही प्रधान कारण है।
"जिन कवियों का सम्पूर्ण शब्दसन्दोहरूप चन्द्रमा मतिरूप स्फटिक मे प्रतिविम्बित होता है उन कवियो मे भी ऊपर किसी ही कवि की वुद्धि क्या अदृष्ट अपूर्व अर्थ मे स्फुरित नहीं होती है ? जर होती है।" ग्रन्थकार ने अपने उक्त भाव की पुष्टि मे निम्न पद्य दिया है
स फोप्यतर्वेद्यो वचनपरिपार्टी गमयत , कवे कस्याप्यर्थ स्फुरति हृदि वाचामविषय ।
सरस्वत्यप्यर्यान्निगदनविधी यस्य विषमामनात्मीया चेप्टामनुभवति कष्ट च मनुते ॥
अर्थात्-काव्य के विषम अर्थ को कहने मे मरस्वती भी अनात्मीय चेप्टा का अनुभव करती है और कप्ट मानती है। किन्तु वचन की परिपाटी को जनाने वाले अन्तर्वेदी किसी कवि के हृदय मे ही किसी-किसी पद्य या वाक्य का वह अर्थ स्फुरायमान होता है, जो वचन का विषय नही है। लेकिन जिनको भारती (वाणी) लोक में रसभाव का उद्भावन तो करती है परन्तु महान् प्रवन्ध के निर्माण में स्पष्ट रूप से विस्तृत नहीं होती, ग्रन्यकार की दृष्टि में, वे कवीन्द्र ही नहीं है।
प्रस्तुत ग्रथ की भाषा बहुत ही प्राञ्जल, सुबोध, सरस और गम्भीर अर्थ की प्रतिपादक है और इसमे पुष्पदन्तादि महाकवियो के काव्य-ग्रन्थो की भाषा के समान ही प्रौढता और अर्थगौरव को छटा यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है।
जम्बूस्वामी अन्तिम केवली है, इसे दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनो ही मम्प्रदाय वाले निर्विवाद रूप से मानते है और भगवान महावीर के निर्वाण से जम्बूस्वामी के निर्वाण तक की परम्परा भी उभय सम्प्रदायो में प्राय एक-सी है, किन्तु उसके बाद दोनो में मतभेद पाया जाता है। जम्बूस्वामी अपने समय के प्रसिद्ध ऐतिहासिक महापुरुष हुए है। वे काम के असाधारण विजेता थे। उनके लोकोत्तर जीवन की पावन झाँकी ही चरित्र-निष्ठा का एक महान्
'जाण समग्गसदोह मेंदुउ रमइ भइफडक्कमि । ताण पि हु उवरिल्ला कस्स व बुद्धी न परिप्फुरई ॥५॥
-जवूस्वामीचरित सधि १ 'मा होतु ते कइदा गरुयपवघे विजाण निव्वूढा । रसभावमुग्गिरती वित्थरइ न भारई भुवणे ॥२॥
-जबूस्वा० स०१ 'दिगम्बर परपरा में जबूस्वामी के पश्चात् विष्णु, नन्दीमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये पांच श्रुतकेवली माने जाते है, किन्तु श्वेताम्बरीय परपरा में प्रभव, शय्यभव, यशोभद्र, प्रार्यसभूतिविजय, और भद्रबाहु इन पांच श्रुतकेबलियो का नामोल्लेख पाया जाता है। इनमें भद्रबाहु को छोडकर चार नाम एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न है।