________________
४४१
अपभ्रंश भाषा का 'जम्बूस्वामिचरित' और महाकवि वीर
श्रादर्श रूप जगत् को प्रदान करती हैं । इनके पवित्रतम उपदेश को पाकर ही विद्युच्चर जैसा महान् चोर भी अपने चौरकर्मादि दुष्कर्मों का परित्याग कर अपने पाँच सौ योद्धाओ के साथ महान् तपस्वियो मे अग्रणीय तपस्वी हो जाता व्यरादिकृत महान् उपसर्गों को ससघ साम्यभाव से सह कर सहिष्णुता का एक महान् आदर्श उपस्थित
करता है ।
उस समय मगध देश का शासक राजा श्रेणिक था, जिसे विम्वमार भी कहते है । उसकी राजधानी 'रायगिह' (राजगृह) कहलाती थी, जिसे वर्तमान में लोग राजगर के नाम से पुकारते है । ग्रन्थकर्त्ता ने मगव देश और राजगृह का वर्णन करते हुए और वहाँ के राजा श्रेणिक का परिचय देते हुए उसके प्रतापादि का जो मक्षिप्त वर्णन किया है, उसके तीन पद्य यहाँ दिये जाते है
"चड भुप्रदडखडियपयडमडलियमडली वि सड्ढें । धाराखडणभीयव्व जयसिरी वसइ जस्स खग्गके ॥ १॥ रे रे पलाह कायर मुहइ पेक्खद्द न सगरे सामी । इय जस्स पयावद्योसणाए विहडति वइरिणो दूरे ॥ २ ॥ जस्स रक्खिय गोमडलस्स पुरुसुत्तमस्स पढाए । के के सवा न जाया समरे गयपहरणा रिउणो ॥ ३॥ "
राजाओ का समूह खडित हो गया है, (जिसने और धारा-खडन के भय से ही मानो जयश्री
अर्थात् — “जिसके प्रचड भुजदड के द्वारा प्रचड माडलिक अपनी भुजाओ के वल से माडलिक राजात्रो को जीत लिया है) जिसके खजात में वसती है ।
"राजा श्रेणिक सग्राम मे युद्ध से सत्रम्त कायर पुरुषो का मुख नही देखते, 'रे, रे कायर पुरुपो । भाग जाओ' —— इस प्रकार जिसके प्रताप वर्णन से ही शत्रु दूर भाग जाते है । गोमडल ( गायो का समूह ) जिस तरह पुरुषोत्तम विष्णु के द्वारा रक्षित रहता है, उसी तरह यह पृथ्वीमंडल भी पुरुषो मे उत्तम राजा श्रेणिक के द्वारा रक्षित रहता है । राजा श्रेणिक के समक्ष युद्ध में ऐसे कौन शत्रु- सुभट है, जो मृत्यु को प्राप्त नही हुए, अथवा जिन्होने केशव (विष्णु) के आगे श्रायुधरहित होकर श्रात्म-समर्पण नही किया ।"
इस तरह ग्रन्थ का कथाभाग बहुत ही सुन्दर, सरस और मनोरंजक है और कवि ने काव्योचित सभी गुणो का ध्यान रखते हुए उसे पठनीय बनाने का प्रयत्न किया है ।
ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक
इस ग्रन्थ की रचना मे जिनकी प्रेरणा को पाकर कवि प्रवृत्त हुआ है, उसका परिचय ग्रन्थकार ने निम्नरूप से दिया है -
मालवा में वक्कडवश' के तिलक महामूदन के पुत्र तक्खडु श्रेष्ठी रहते थे । यह ग्रन्थकार के पिता महाकवि देवदत्त के परम मित्र थे । इन्होने ही वीर कवि से जम्बूस्वामीचरित के सकलन करने की प्रेरणा की थी श्रौर तक्खडु
"
'यह वश ग्यारहवीं बारहवीं, और तेरहवीं शताब्दियों में खूब प्रसिद्ध रहा। इस वश में दिगम्बरश्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायों की मान्यता वाले थे । दिगम्बर सम्प्रदाय के कई विद्वान् इसी वश में हुए है, जैसे भविसयत्तकहा के कर्ता कवि धनपाल और धर्मपरीक्षा के कर्ता हरिषेण । हरिषेण ने श्रपनी धर्मपरीक्षा वि०स० १०४४ में बनाई थी । प्रत यह धक्कड या घर्कट वश इससे भी प्राचीन जान पडता है । देलवाडा के वि० स० १२८७ के तेजपाल वा लेशिलालेख में घर्कट या घक्कड जाति का उल्लेख है - लेखक ।
५६