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श्रीदेवरचित 'स्याद्वावरत्नाकर' में अन्य ग्रन्यों और ग्रन्थकारो के उल्लेख ४३१ अोर सकेत है तथा कमलशील की टीका से विदित होता है कि शान्तरक्षित की कारिका (न० १४८२) में पुरन्दर के पहले होने का प्रमाण विद्यमान है।
पुरन्दरस्त्वाह-'लोकप्रसिद्धमनुमान चार्वाकरपि इण्यत एव । यत्तु कैश्चिल्लौकिक मार्गमतिक्रम्य अनुमानमुच्यते तन्निषिध्यत इति । एतदाशक्य दूषयन्नाह लौकिकमित्यादि।
गायकवाड ओरिएटल सिरीज़ मे प्रकाशित 'तत्त्वसग्रह' की भूमिका (पृ० ८५) मे सम्पादक ने लिखा है"सस्कृत साहित्य में हमको कही इस बात का पता नही मिलता कि पुरन्दर लोकायत था।"
किन्तु अव 'स्याद्वादरत्नाकर' ग्रन्थ से न केवल पुरदर का पता चलता है, अपितु यह भी मालूम हो गया है कि उसके द्वारा रचित लोकायत सूत्रो पर उद्भट नामक भाष्यकार ने एक टीका भी लिखी है। 'तत्त्वसग्रह' में पुरन्दर का उल्लेख होने से ज्ञात होता है कि उस (पुरन्दर) का समय ७०० ई० से पहले का है। उसके लोकायत सूत्रो पर लिखे हुए उद्भट के भाष्य का नाम एक स्थान पर 'तत्त्ववृत्ति' तया दूसरे स्थान पर 'तन्त्रवृत्ति' मिलता है।
___ यच्चोक्त तत्त्ववृत्तावुद्भटेन 'लक्षणकारिणा लाघविकत्वेनैव शब्दविरचनव्यवस्था, न चैतावता अनुमानस्य गौणता, यदि च साध्यैकदेशर्मिधर्मत्व हेतो रूपं ब्युस्ते, तदा न काचिल्लक्षणेऽपि गौणी वृत्ति' इति । यत्तु तेनैव परमलोकायत-मन्येन लोकव्यवहारकपक्षपातिना लोकप्रसिद्ध धूमाद्यनुमानानि पुरस्कृत्य शास्त्रीय स्वर्गादिसाधकानुमानानि निराचिकीर्षता " गौणत्वाद् अनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभ" इति पौरन्दर सूत्र पूर्वाचार्य तिरस्कारेण व्याख्यानयता इदमभिहित 'हतो स्वसाध्य नियम ग्रहणे प्रकारत्रयमिष्ट दर्शनाभ्यामवशिष्टाभ्या दर्शनेन विशिष्टानुपलब्धिसहितेन भूयोदर्शनप्रवृत्या च लोकव्यवहारपतितया, तत्राद्येन ग्रहणोपायेन ये हेतोर्गमकत्वमिच्छन्ति तान् प्रतीद सूत्र लोकप्रसिद्धष्वपि, हेतुषु व्यभिचारा दर्शनमस्ति तन्त्रसिद्धष्वपि, तेन व्यभिचारादर्शन लक्षणगुणसाधर्म्यत तन्त्रसिद्धहेतूना तथाभावो व्यवस्थाप्यत इति गौणत्वमनुमानस्य । अव्यभिचारावगमो हि लौकिकहेतूनामनुमेयावगमे निमित्त स नास्ति तन्त्रसिद्धेष्विति न तेभ्य परोक्षार्थावगमो न्याय्य , प्रत इदमुक्तम्-अनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभ इति।
पृ० २७० उक्त च तन्त्रवृत्तौ भट्टोद्भटेन 'सर्वश्च दूषणोपनिपातोऽप्रयोजकहेतुमानामतीत्यप्रयोजक विषया विरुद्धानुमान विरोधविरुद्धा व्यभिचारिण' इति ।
भाग ४, पृ० ७६४ --यत्र तु भट्टोद्भट प्राचीकटत् 'न पत्रकारणमेवकार्यात्मतामुपैति यत एकस्याकारणास्मन एककामरूपतोपगमे तदन्यरूपाभावात् तदन्यकार्यात्मनोपगतिर्न स्यात् । किन्तु अपूर्वमेव कस्यचिद्भावे प्रागविद्यमान भवत्तत्कार्यम् । तत्र विषयेन्द्रियमनस्काराणामितरेतरोपादानाहितरूप भेदाना सन्निधौ विशिष्टश्वेतरक्षणभावे प्रत्येक तद्भावाभावानुविधानादेकक्रियोपयोगो न विरुद्ध्यते । यत एकक्रियायामपि तस्य तद्भावाभावितव निबन्धनम्, सा च अनेक क्रियायामपि समाना, इति ।
भाग ५, पृ० १०८३-पुरन्दर के सूत्रो में से एक मे उन तत्त्वो का कथन है, जिन्हें लोकायतिक मानते हैवे तत्त्व है-पृथिवी, आपस्, तेजस् और वायु । दूसरे सूत्र में कहा गया है कि व्यक्ति मे चैतन्य का उदय' उसी प्रकार होता है जिस प्रकार कुछ परमाणुनो में, जब वे आपस मे मिला कर एक किये जाते है मादक शक्ति का आविर्भाव हो जाता है । उद्भट ने पुरन्दर के सूत्रो पर लिखे हुए अपने भाष्य में कहा है कि वास्तव में लोकायतिको के तत्त्व केवल यही चार नही है और सूत्र में दी हुई सूची केवल सकेतात्मक है। उसने यह भी लिखा है कि 'इति' शब्द से उल्लिखित सूची का अन्त नही प्रकट होता, अपितु इसी भांति के अन्य तत्त्वो का भी भान होता है और मदशक्ति के समान उत्पन्न विज्ञान एक अन्य तत्त्व है। उसी प्रकार शब्द, सुख आदि भी अन्य तत्त्वो में से है।
न च 'प्रथिव्यापस्तेजो वायुरिति तत्त्वानि' इति सूत्र व्याघात । सूत्रे इति शब्दस्य समाप्त्यर्यत्वेन अव्याख्यानात् । यदाचष्ट भट्टोद्भट --'इतिशब्द प्रदर्शनपर न समाप्तिवचन , चैतन्य-सुख-दुख-इच्छा-द्वेष-प्रयत्नसस्काराणा तत्त्वान्तरत्वात्, पृथिव्यादि प्राप्रध्वसापेमान्योन्याभावानां चात्यन्तप्रकटत्वादुक्तविलक्षणात्वाच्च' इति।