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प्रमा-श्रमनवनाथ
ओचक या उम्बेक
भाग २, पृ० २७६ - प्रभावप्रमाण पर एक कारिका का कथन यहाँ किया गया है साथ ही उस पर श्रीचक की टीका भी उद्धृत की गई है । जो कारिका दी गई है वह कुमारिल के श्लोकवार्तिक में प्राये हुए प्रभाववाद का पहला श्लोक है और जो प्रोचक के नाम से टिप्पणियाँ दी हुई है वे उम्वेक की
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Marस्त्वेव व्याख्यातवान् 'तत्र घटाये वस्तुनि प्रत्यक्षादिसद्भावग्राहक नोपजायते तस्य नास्तिता भूप्रदेशाधिकरणाभावप्रमाणस्य प्रमेया इति ।
यह वाक्य श्लोकवार्तिक ( मद्राम यूनिवर्सिटी सस्करण, उम्वेक के भाष्य सहित ) के पृ० ४०६ मे मिलता है । स्यादादरत्नाकर मे दिये हुए उद्धरण का पाठ अधिक शुद्ध जँचता है ।
भाग १, पृ० १५७ कमलशील, बौद्धनैयायिक ( ८वी श० ) न्यायविन्दु पर टीका का लेखक । उसकी पजिका, जो शान्तरक्षित के तत्त्वसग्रह पर लिखी गई है, गायकवाड प्रोग्यिटल मोरोज मे तत्त्वमग्रह के साथ प्रकागित हुई है।
भट्टजयन्त का पल्लव
स्याद्वादरत्नाकर से 'न्यायमजरी' ग्रन्थ के लेखक भट्टजयन्त नामक एक अज्ञात ग्रन्थकार का पता चला है । भाग १, पृ० ६४ - तथा च समाचष्ट भट्टजयन्त पल्लवे
तत्रासन्दिग्धनिर्वाध वस्तु बोधविधायिनी । सामग्री चिदचिद्रूपा प्रमाणमभिधीयते ॥ फलोत्पादाविनाभावि स्वभावाव्यभिचारि यत् । तत्साधकतम युक्त साकल्यान पर च तत् ॥ साकल्यात्सदसद्भावे निमित्त कर्तृकर्मणो । गौण मुख्यत्वमित्येव न ताभ्या व्यभिचारिता ॥ सहन्यमानहोनेन सहतेरनुपग्रहात् । सामश्या पश्यतीत्येव व्यपदेशो न दृश्यते ॥ लोचनालोकलिगादे निर्देशो यस्तृतीयया । स तद्रूप समारोपादुषया पत्रतीतिवत् ॥ तदन्तर्गतकर्मादि कारकापेक्षया च सा । करण कारकाणा हि धर्मोऽसौ न स्वरूपवत् ॥ सामप्रयन्त' प्रवेशेऽपि स्वरूप कर्तृकर्मणो । फलवत्प्रतिभातीति न चतुष्ट्व विनश्यति ॥ इति ॥
सम्पादक का कथन है कि ये श्लोक 'न्यायमजरी' मे नही मिलते और उनका अनुमान है कि 'पल्लव' से श्रीधर का अभिप्राय 'न्यायमजरी' से ही है, परन्तु हम देखेंगे कि इस अनुमान की कोई पुष्टि नही होती कि 'पल्लव' से श्रीदेव का अभिप्राय 'न्यायमजरी' से हो रहा हो ।
भाग १, पृ० ३०२
यदजल्पि जयन्तेन पल्लवे-
स्वरूपाद्भवत्कार्यं सह कार्यपबूहितात् । न हि कल्पयितु शक्त शक्तिमन्यामतीन्द्रियाम् ॥