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प्राकृत और सस्कृत पचसग्रह तथा उनका प्राधार
४२१ पर प्राकृत पचसग्रह का गभीरता के साथ सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करने पर कुछ गाथाएँ ऐसी अवश्य प्रतीत हुई, जो अर्थ का पिष्ट-पेषण या सामान्यत निरूपित वस्तु का विशेष निरूपण करने वाली थी। इन दोनो कारणो से हमने यह कल्पना की है कि मभव है कि इन दोनो प्रकरणो की मूल गाथाएँ क्रमश १०० और ७० रही हो, और इसी कारण उन प्रकरणो के क्रमश 'शतक' और 'सप्ततिका' नाम पडे हो । इस कल्पना को सामने रखकर जब हमने श्वेताम्बर सस्थाओ. से मुद्रित 'सतक' और 'सत्तरी' नामके दो प्रकरणो से मिलान किया तो इस बात में कोई सन्देह नहीं रह गया कि उक्त प्रकरणो की क्रमश १०० और ७० गाथानो को आधार बनाकर रचे गये होने के कारण ही पचसग्रहकार ने कृतज्ञता प्रकाशनार्थ उन दोनो प्रकरणो के वे ही नाम रख दिये है।
यहाँ उक्त दोनो प्रकरणो मे से कुछ अवतरण दिये जाते हैं, जिनसे उक्त कल्पना असदिग्ध सिद्ध होती है। प्राकृत पचसग्रहकार ने उक्त दोनो प्रकरणो को ज्यो-का-त्यो अपना लिया है और दोनो ही प्रकरणो को समस्त गाथानो पर भाष्यगाथाएँ रची है, जिसका विशद ज्ञान तो मूलग्रन्य के प्रकाश में आने पर ही हो सकेगा। यहाँ 'शतक' और 'सप्ततिका' प्रकरण की गाथाम्रो को मूलगाया और पचसग्रहकार द्वारा रचित गाथाओ को भाष्यगाथा नाम देकर उल्लेख किया जाता है
१ शतक प्रकरण मे से
मूलगाथा-एयारसेसु ति त्ति य दोसु चउक्क च वारमेषकम्मि।
जीवसमासस्सेदे उवनोगविही मुणेयव्वा ॥२०॥ इस गाथा का पचसग्रह के इस प्रकरण मे २०वां स्थान है और शतक प्रकरण में वाँ । इसके अर्थस्पष्टीकरण के लिए प्राकृत पचसग्रहकार ने १६ भाष्यगाथाएँ रची है, जिनमे से प्रारभिक दो गाथाएँ यहाँ दी जाती हैभाष्यगाथा-मइसुन अण्णाणाइ अचक्खू एयारसेसु तिण्णेव ।
चक्खूसहिया तेच्चिय चउरक्खे असण्णिपज्जत्ते ॥२१॥ मइ सुय प्रोहिदुगाइ सण्णि अपज्जत्तएसु उवोगा।
सव्वे वि सण्णिपुण्णे उवश्नोगा जीवठाणेसु ॥२२॥ विषय के जानकार पाठक जान सकेंगे कि इन दो गाथानो में मूलगाथा के 'एयारसेसु तित्तिय दोसु चउक्क च' इतने अश का ही अर्थ व्याख्यात हुआ है।
मूलगाथा--अविरय-अता दसय विरयाविरयतिया दु चत्तारि ।
छच्चेव पमत्तता एया पुण अप्पमत्तता ॥३०॥ भाष्यगाथा-विदियकसायचउक्क मणुयाऊ मणुयदुग य उराल ।
तस्स य अगोवग सघयणाई अविरयस्स ॥३१०॥ तइयकसायचउक्क विरयाविरयम्मि बधवोच्छिण्णो। साइयरमरइ सोय तह चेव य अथिरमसुह च ॥३१॥ अज्जसकित्ती य तहा पमत्तविरयम्हि बधवोच्छेदो। देवाउय च एय पमत्त-इयरम्हि णायव्वो ॥३१२॥