________________
'भगवती आराधना' के कर्ता शिवार्य
श्री ज्योतिप्रसाद जैन एम० ए०, एल-एल० बी० आराधना, मूलाराधना अथवा भगवती पागधना नामक ग्रन्थ मुनियो के प्राचार का एक प्रसिद्ध लब्धप्रतिष्ठ प्राचीन प्राकृत ग्रन्य है । इसके मूल रचयिता प्राचार्य शिवार्य थे। अनेक प्राकृत एव सस्कृत टीकाएँ इस ग्रन्थ पर रची गई, जिनमें से कितनी ही आज भी उपलब्ध है। अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित 'भगवती आराधना' की श्रद्धेय प० नाथूराम जी प्रेमी कृत भूमिका तथा प्रेमी जी के तत्सम्बन्धी अन्य लेखो तथा 'आराधना और उसकी टीकाएं', 'यापनीय साहित्य की खोज इत्यादि मे उक्त ग्रन्थ के अन्त करण, उसकी विभिन्न टीकामो एव टीकाकारो के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो जाती है, किन्तु मूल लेखक के विषय मे, जितना कि वे अपने ग्रन्थ में स्वय प्रकट करते है, उससे अधिक विशेष ज्ञान नहीं होता।
ग्रन्थ के अन्त में २१६१ से २१६६ पर्यन्त गाथानो मे ग्रन्थकार प्राचार्य ने अपना जो निजी परिचय दिया है, वह इस प्रकार है-"आर्यजिननन्दिगणि, आयंसर्वगुप्तगणि, प्रार्यमित्रनन्दिगणि के चरणो के निकट जल सूत्रो और और उनके अर्थ को अच्छी तरह समझ कर पूर्वाचार्यों द्वारा निवद्ध की हुई रचना के आधार से पाणितलभोजी शिवार्य ने यह आराधना स्वशक्त्यनुसार रची है। अपनी छमावस्था अथवा ज्ञान की अपूर्णता के कारण इसमे जो कुछ प्रवचन-विरुद्ध लिखा गया हो, उम पदार्थ को भली प्रकार समझने वाले प्रवचन वात्सल्य के भाव से शुद्ध करले । इस प्रकार भक्तिपूर्वक वर्णित भगवती आगधना सघ तथा शिवार्य को उत्तम समाधि प्रदान करे। इत्यादि।"
उपर्युक्त गाथानो मे इतना ही स्पष्ट है कि 'भगवती आराधना' के कर्ता पाणितलभोजी-अत एक दिगम्बर जैनाचार्य-गिवार्य थे। उनके शिक्षागुरु प्रायजिननन्दिगणि, आर्यसर्वगुप्तगणि तथा आर्यमित्रनन्दिगणि थे। इनके दीक्षागुरु इन्ही तीन प्राचार्यों में से कोई एक थे अथवा अन्य कोई प्राचार्य थे, यह निश्चित नहीं है । ग्रन्थ का आधार तद्विषयक मूलसूत्र एव पूर्वाचार्यों द्वारा निबद्ध कतिपय रचनाएँ थी।
ग्रन्थ की अनेक प्राकृत-सस्कृत टीकामो मे अपराजितसूरि कृत 'विजयोदया', दूसरी अमित गत्याचार्य कृत (११वी शताब्दी) तथा तीसरी प० प्रागाधर जी कृत (१३वी शताब्दी) विशेष प्रसिद्ध है। इनमें से अपराजित सूरि की विजयोदया टीका सबसे प्राचीन है। श्रद्धेय प्रेमी जी के अनुमानानुसार वह पाठवी शताब्दी विक्रम के पूर्व की ही है, किन्तु अपराजितसूरिके सम्मुख भी इम ग्रन्यकी अन्य प्राकृत-सस्कृत टीकाएँ मौजूद थी और प्राकृत टीकारो का समय छठी शताब्दी के लगभग समाप्त हो जाता है। अत अन्य की सर्व प्राचीन प्राकृत टीका कम-से-कम छठी शताब्दी की अवश्य रही होगी और इस प्रकार मूल ग्रन्थ का रचना काल भी ईस्वी सन् पाँचवी, छठी शताब्दी के पूर्व का ही होना चाहिए।
वास्तव में कुछ प्रमाण इस प्रोर सकेत करते है कि यह रचना सम्भवत ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी की होनी चाहिए।
यह ग्रन्थ दिगम्बर सम्प्रदाय मे प्रारम्भ से ही बहुमान्य रहा है और इसकी प्राय सब उपलब्ध टीकाएँ दिगम्बराचार्यों द्वारा ही रची हुई है। लेखक का 'पाणितलभोजी' विशेषण भी उनका श्वेताम्बर साधु न होकर दिगम्बर मुनि होना ही सूचित करता है, परन्तु प्रचलित दिगम्बर मान्यताओ के कुछ विरोधी विचार भी उसमे
'जैन साहित्य और इतिहास, पृ० २३ तथा अनेकान्त वर्ष १, पृ० १४५, २०६ अनेकान्त वर्ष ३, पृ० ५६
५४