________________
प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ३६२ जव कि व्यावहारिक दृष्टि से वह आत्मा को कर्म के सम्बन्ध से शवल तथा नानारूपधारी मानती है । अद्वैत, परब्रह्म, और जीवभेद इन दोनो के सम्बन्ध का जो स्पष्टीकरण वेदान्त करता है वही स्पष्टीकरण जैनदृष्टि से प्रत्येक स्वतन्त्र चेतन के तात्त्विक और व्यावहारिक स्वरूप के सम्बन्ध के विषय मे है।
ऋग्वेद मण्डल १ सूक्त १६४ के मत्र २० में सेश्वर साख्य का बीज प्रतीत होता है। उसमें एक ही वृक्ष के ऊपर रहे हुए दो पक्षियो का रूपक करके विश्वगत जीवात्मा और परमात्मा का वर्णन किया गया है। दो समान स्वभाव सहचारी मित्र जैसे पक्षी एक ही वृक्ष को आश्रय वना कर रहते हैं। उनमे से एक-जीवात्मा स्वादुफल (कर्मफल) वाले को चखता है, जव कि दूसरा पक्षी-परमात्मा ऐसे फल को विना चखेही प्रकाशित होता है। इसके बाद के दो अगले मत्रो मे भी वृक्ष और पक्षियो का रूपक विस्तृत करके सहज भगीभेद से पुन जीवात्माओ का वर्णन किया है। यह रूपक इतना अधिक सचोट और आकर्षक है कि उसकी रचना हुए हजारो वर्ष व्यतीत हो गये फिर भी वह चिंतकगण
और सामान्य लोगो के विचारप्रदेश मे से हटने के बजाय तत्त्वज्ञान के विकास के साथ अर्थ से विकसित होता गया। अथर्ववेद काण्ड ६ सूक्त ६ मे ऋग्वेद के ये ही तीनो मत्र है । जब कि मुण्डक उपनिषद मु० ३ ख० १ में दो पक्षियो के स्पक का मत्र तो यही है, परन्तु उसके बाद दूसरे मन में यह कहा गया है कि वृक्ष के एक होने पर भी उसमें लुब्ध पुरुष दीनता के कारण मोह को प्राप्त करके हर्ष-विषाद का अनुभव करता है । परन्तु वह लुब्ध पुरुष जव उसी वृक्ष पर रहे हुए दूसरे समर्थ-अलुब्ध और निर्मोह पुरुष का दर्शन करता है तब वह स्वय भी निर्मोह बनता है। एक ही वृक्ष पर आश्रित दो पक्षियो के रूपक द्वारा ऋग्वेद या अथर्ववेद मे जो अर्थ विवक्षित था उसको ही मुण्डककार ने दूसरे मत्रो मे स्पष्ट किया हो ऐसा प्रतीत होता है। क्योकि वह कहता है कि जो पुरुष वृक्ष में लुब्ध है वह मोह मे दुखी होता है, दूसरा पुरुष समर्थ होने से उसमे लुब्ध नही है। इसलिए लुब्ध को अलुब्ध के स्वरूप का दर्षन होते ही वह भी निर्मोह बनता है । श्वेताश्वतर ने (अ० ४) मुण्डक के इन दोनो मत्रो को लेकर जीवात्मा और परमात्मा के स्वरूप का तया उनके पारस्परिक सम्बन्ध का वर्णन तो किया ही है, परन्तु इसके सिवाय भी उसने एक नवीन आकर्षक रूपक को योजना करके बद्ध और मुक्त ऐसे दो पुरुषो का वर्णन किया है। उसने अज-बकरे का रूपक करके कहा है कि एक अज-बद्ध जीव भोगाभिमुख प्रकृति रूप अजा के ऊपर प्रीति करने से दुखी होता है जब कि दूसरा अज---मुक्त जीव भोगपराड्मुख अजा को छोड देता है। इस प्रकार ऋग्वेद से श्वेताश्वतर तक के रूपको द्वारा किया हुआ वर्णन इतना सूचित करता है कि प्रकृति, वद्धपुरुष, मुक्तपुरुष और परमात्मा ये चार तत्त्व विचारप्रदेश में स्थिर हो गये है जो कि सेश्वरसाव्य या सास्य-योग की भूमिका स्वरूप है।
सिद्धसेन ने प्रस्तुत पद्य मे पुराने रूपको का त्याग करके थोडे से परिवर्तन के साथ दूसरी रोति से इसी वस्तु का वर्णन किया है। वह वद्ध और मुक्त दो पुरुषो मे से केवल वद्धपुरुष का ही एक अज रूप से वर्णन करता है और मुक्त पुरुष का अज रूपक तया परमात्मा का पक्षी रूपक छोड करके परमात्मा का सृष्टि और जीवात्मा के अध्यक्षरूप मे 'योऽस्याध्यक्ष अकल सर्ववान्य वेदातीत वेद वेद्यस वेद' यह कह करके वर्णन करता है। इसके इस कथन मे ऋग्वेद के नामदीयसूक्तगत मत्र ७ के 'योऽम्याध्यक्ष परमे व्योमन् मो अङ्ग वेद यदि वा न वेद' इस पद की ध्वनि गुजित होती है।
सिद्धमेन के पीछे लगभग हजार वर्ष के बाद हुए ग्रानदघन नामक जैनसत ने हिदी भाषा मे इस वैदिक और औपनिषद रूपक का बहुत खूबी से वर्णन किया है। वह कहता है कि एक वृक्ष के ऊपर दो पक्षो वैठे हुए है। उनमे एक गुरु और दूसरा शिष्य है। शिष्य चुन चुन करके फल खाता है, पर गुरु तो सदा मस्त होने से हमेशा आत्मतुष्ट है । आनदधन ने इस रूपक के द्वारा जैनपरम्परासम्मत बद्ध और मुक्त जीव का वर्णन किया है जो साख्यपरम्परा
'तरुवर एक पछी दोउ बैठे, एक गुरू एक चेला।
चेले ने जग चुण चुण खाया, गुरू निरतर खेला ॥पद० ६८॥