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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ यदि अगम्य तथा अमेय तत्त्वो का वर्णन शक्य हो तो वह अधिक ठीक तरह से विरोधाभास के द्वारा ही हो सकता है। ऐसी विरोधाभास शैली का आश्रय वैदिक ऋषियो से पारम्भ करके अत तक के सभी तत्त्वज्ञ कवियो ने लिया है। इसीलिए सिद्धसेन परमात्मा और विश्व दोनो का परस्पर के ज्ञाता और ज्ञेय रूप से वर्णन करता है। परमेश्वर विश्व को जानता है, यह सत्य है, परन्तु विश्व जो कि ज्ञेय माना जाता है और जिसमेंजीवात्मा का भी समावेश होता है, वह परमात्मा को नहीं जाने तो दूसरा कौन जाने ? इसीलिए गीता मे अर्जुन-जीवात्मा कृष्ण-परमात्मा को कहता है कि ज्ञाता भी तू है और ज्ञेय ऐसा अतिम धाम भी तू ही है (गीता ११-३८) ।
स एवैतद्भूवन सृजति विश्वरूप तमेवैतत्सृजति भुवन विश्वरूम् ।
न चैवैन सृजति कश्चिन्नित्यजात न चासौसृजति भुवन नित्यजातम् ॥३॥ अर्य--वही नानारूप परमात्मा इस विश्वका सर्जन करता है और यही नानारूप विश्व उसको--परमात्मा को सरजता है । और इस नित्यजात परमात्मा को कोई सरजता नहीं है तथा यह परमात्मा नित्यजात भुवन को सरजता नही है।
भावार्थ-इस पद्य मे नानारूप भुवन और परमात्मा का एक दूसरे के सर्जकरूप से वर्णन किया गया है। और भुवन तथा परमात्मा को नित्यजात--सदोत्पन्न कह करके कोई किसी का सर्जन नहीं करता है यह भी कहा है । इस प्रत्यक्ष विरोध का परिहार दृष्टिभेद से हो जाता है । जैन परम्परा मे द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक ये दो दृष्टियाँ प्रसिद्ध है और वे सब तत्त्वो को लागू होती है। उसके अनुसार यह कह सकते है कि चेतन या अचेतन प्रत्येक तत्व पपने मूल स्वरूप मे शाश्वत और अनुत्पन्न है अतएव उनमें से कोई एक दूसरे का सर्जन नहीं करता है। जब यही प्रत्येक तत्त्व स्व-स्व-रूप से नित्य होने पर भी अवस्थाभेद का अनुभव करता है और वह अवस्थाभेद पारस्परिक सयोग सापेक्ष है इसलिए दोनो चेतन-अचेतन तत्त्व एक दूसरे का सर्जन भी करते हैं।
साग्य-योग या वेदान्त की दृष्टि से भी.कवि का वर्णन असगत नही है । परमेश्वर नानारूप विश्व का सर्जन करता है । यह मन्तव्य तो श्वेताश्वतर की 'अस्मान्मायी सजते विश्वमेतत्' इस उक्ति मे स्पष्ट है ।' और 'प्रभु लोक के कर्तृत्व आदि किसी का सर्जन नहीं करता है स्वभाव ही स्वयमेव प्रवृत्त होता है । इस गीतावचन मे परमात्मा का असर्जकत्व भी स्पष्ट है तया नानारूप विश्व परमेश्वर का आभारी है अतएव वह जिस प्रकार उसका-विश्वका मर्जक कहा जाता है उसी प्रकार परमेश्वर के नानारूप भी प्राकृत यामायिक नानारूप विश्व के प्राभारो है अतएव विश्व को भी परमात्मा का सर्जक कहा जा सकता है। केवल प्रकृति ही नहीं परन्तु चेतन परमात्मा भी नित्यजात-सनातन है । इसलिए दोनो मे से कोई एक दूसरे का सर्जन नहीं करता है ऐसा कह सकते है । सर्जन-पसर्जन यह सव प्रापेक्षिक अथवा मायिक है यह कह कर कवि अत मे तत्त्व की अगम्यता का ही सूचन करता है ।
एकायनशतात्मानमेक विश्वात्मानममृत जायमानम् ।
यस्त न वेद किमृचा करिष्यति यस्त च 'वेद किमृचा करिष्यति ॥४॥ अर्थ--एक प्राश्रयरुपएव शतात्मरूप तथा एक एव विश्वात्मरूप तथा अमृत एव जन्म लेनेवाले ऐसे उसको-- परमात्मा को जो नही जानताहै वह ऋचा से क्या करने वाला है और जो उस परमात्मा को जानता है वह भी ऋचा से क्या करने वाला है।
'श्वेताश्वतर ४ ।। 'न कर्तृत्व न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु ।
न कर्मफ्लसयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥गीता ५. १४ 'यस्त न वेद-मु०