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नयचंद्र और उनका ग्रंथ 'रंभामंजरी'
श्री आदिनाय नेमिनाथ उपाध्ये एम० ए०, डी० लिट० आत्म-परिचयसवधी कुछ श्लोको से, जो हम्मीर महाकाव्य" (१४,४६, ४६*१, ४६*३,६४*४)तथा 'रभामजरी" (१,१५-१८) दोनो ग्रयो में एक मे पाये जाते है, प्रकट होता है कि ये दोनो अथ एक ही नयचद्र की रचनाएं है। इनमे लेखक ने अपने धार्मिक पूर्वजो का कुछ वर्णन किया है-प्रसिद्ध कृष्णगच्छ में उत्पन्न जयसिंहसूरि ने शास्त्रार्थ में सारग नामक एक बडे प्रतिभाशाली कवि को परास्त किया, जो छ भाषाओ में रचना करने वालो मे से एक था, जो वडा प्रामाणिक (प्रमाण शास्त्र का ज्ञाता) था, और जिसने न्यायसारटोका, एक नवीन व्याकरण तथा कुमार नृपति सवधी एक काव्य की रचना की थी।' यह सारग कौन था, यह अनिश्चित है । जयसिंह के लिखे हुए तीनो ग्रथो में पहला भासर्वज्ञ के न्यायसार (६०० ई०) को टोका है और तीसरा ग्रथ कुमारपालचरित है, जो १० सर्गों मे है तया जो म० १४२२ (१३६४-६५ ई०) मे समाप्त हुआ था।' जयसिंह का शिष्य प्रसन्नचद्र' था, जो राजाओ मे सम्मान पाता था। 'रभामजरी' का लेखक हमारा अथकर्ता नयचद्र यद्यपि प्रसन्नचद्र का शिष्य था, तथापि वह अपने को काव्य-प्रतिभा में जयसिह का ही सर्वया उत्तराधिकारी लिखता है। उसने काव्य के क्षेत्र में अपने परिश्रम का उल्लेख किया है और मरस्वती को अपने ऊपर विशेप कृपा का वर्णन किया है। उसने पहले के कवियो-कुक्कोक, श्रीहर्ष (नैषधीयकता), वात्मायन, (वेणोकृपाण-) अमर अर्थात् अमरचद्र आदि का भी उल्लेख किया है। वह कविता मे अपने को द्वितीय अमरचद्र घोषित करता है। यह अमरचन्द्र पद्मानद महाकाव्य का लेखक है। इसकी अनुकृति ने हम्मीर महाकाव्य भी वीराक है। और उसका समय लगभग तेरहवी शताब्दी का मध्यभाग है।
हम्मीरकाव्य मे ऐतिहासिक घटनाग्रो का मनोरजक वर्णन है। उसमे हम्मीर (तथा साथ ही उसके पूर्वजो) को वीरतायो का कयन है, जिसने अलाउद्दीन से डटकर लोहा लिया और १३०१ ई० मे समरभूमि पर अपने प्राण गाये। काव्यप्रकाग आदि ग्रयो मे कविता के जो लक्षण निर्धारित किये गये है वे सव नयचद्र को विदित थे। उसने लिखा है कि किस प्रकार अपने काव्य में उसने कथावस्तु के साथ रोचकता लाने की चेष्टा को। आलोचको को उसके वर्णन-दोपोपर ध्यान न देना चाहिए (जिनके लिए उसने क्षमायाचना कर ली है)। येदोष कुछ ऐसे है, जिनसे कालिदास जैसे लेखक भी मर्वथा मुक्त नहीं हो सके। नयचद्र ने इस काव्य में शृगार, वीर तया अद्भुत रसो का समावेश करके
'कीर्तने का सस्करण ववई, १८७६ ।
'रामचन्द्र दोनानाय द्वारा सपादित (वबई, १८८९) रभामजरी की एक सुन्दर सस्कृत टिप्पणियो के सहित हस्तलिखित प्रति भडारकर पोरियटल रिसर्च इन्स्टीच्यूट, पूना (१८८४-८६ को सख्या ३३५) में है । विशेष जानकारी के लिए पी० के० गोडे कृत्त पुस्तक सूची का चौदहवां भाग (नाटक, पूना, १९३७) पृ० २४६-७ देखिए । यह सस्करण सभवत. इसी प्रति पर प्राधारित है। इस नाटक पर कुछ विवेचना श्री चक्रवर्ती ने अपने एक निबंध 'Characteristic Features of the Sattaka form of Drama' (इडियन हिस्टारिकल क्वार्टी भाग ७, पृ० १६६-७३)में की है।
"एच० डी० वेलकर द्वारा सपादित 'जिनरत्नकोष' पूना, १९४४ ।
"एम्० डी० देसाई-जैन साहित्यनो सक्षिप्त इतिहास, बबई, १९३३, पृ० ३७८-३८१, एम्० बी० झवेरी. Comparative and Critical study of Mantrasastra, भूमिका, पृ० २२२-२३, महमदाबाद, १९४४।