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नयचद्र और उनका 'प्रथ रभामजरी'
४१५ यद्यपि अन्य अनेक वाते ममानस्प से पाई जाती है । रभामजरी मे तथा दोनो प्रवघो मे 'पगु' उपाधि की व्याख्या करीवकरीव एक ही ढग से की गई है । अत यह वात स्पष्ट हो जाती ह कि नयचद्र का नायक वही है, जिसका नाम प्रवधो में जैत्रचद्र दिया हुआ है। किन्तु नयचद्र ने 'कर्पूरमजरी के ढग पर अपने सट्टक को सुन्दर बनाने के लिए उसके कथानक मे कुछ अन्य वातें जोड दी है । रभामजरी का नायक, जैसा हम ऊपर सकेत कर चुके है, राजा जयचद ही है, जिसे गहड़वाल वश का अतिम शासक कह सकते है, जिसने बनारस को अपना प्रधान निवास स्थान बनाया था और जिसे मुहम्मद गोरी (गिहावउद्दीन) ने परास्त किया था। इस बात का पता नहीं चलता कि लाट का मदनवर्मन् कौन था। सभव है कि नयचद्र ने किसी चदेल राजा का, जिसका नाम मदनवर्मन् या, यहाँ उल्लेख किया है । नयचद्र का यह कथन कि जैवचद्र ने मदनवर्मन् के राज्य पर अपना अधिकार जमाया, शायद प्रवधो के उम वर्णन के आधार पर है जिममें जयचद को मदनवर्मन् के उत्तराधिकारी परमर्दि को परास्त करने वाला कहा गया है।
नयचद्र राजशेखर की कर्पूरमजरी (क० म०)का उल्लेख करता है और इस बात का दावा करता है कि उसकी रभामजरी (र०म०) एक प्रकार मे कर्पूरमजरी से भी श्रेष्ठतर है । र० म० मे अनेक बातो में क० म० का अनुकरण दिखाई पडता है। वसत का दृश्य, जिसका वर्णन राजा, रानी तथा चारण लोग करते है, विदूषक तथा दासी का हास्यकलह, जिसमें विदूपक अपने को परपराधिगत विद्वान लगाता है, तथा प्रकृति-वर्णन जिसके द्वारा द्वारपाल राजा के विग्ह-विन्न चित्त को बहलाने का प्रयत्न करता है ये सब वातें हमको क० म० के तादृश दृश्यो को याद दिलाती है। कुछ भाव भी दोनो मट्टको मे एक मे है, केवल कही-कही थोडाअतर है। दोनो मे विदूपक एक विलक्षण स्वप्न देखता है। अशोक, वकुल, तथा कुरवक वृक्षो के वर्णन दोनो में राजा के कामोद्वेग को बढाने के लिए किये गये है। दोनो ग्रथो में प्रेम-पत्रो की लेखन-प्रणाली भी एक जैसी है। यहाँ तक कि दोनो में कई जगह एक से ही वाक्यो का प्रयोग मिलता है (मिलाइये क० म० २, ११, और र० म० १, ४०, क० म० १, ३२-३४, तथा र० म० १, ४६)।
क० म० में कथानक बहुत सक्षिप्त है, परन्तु र० म० मे तो नहीं सरीखा ही है । नयचद्र के प्राकृत छदो में वह प्रवाह नहीं है, जो राजशेवर के छदो में है। संस्कृत भाषा पर नयचद्र का अच्छा अधिकार है और उनके सस्कृत के कुछ मुन्दर छद (३, ३-४) वास्तव में उनकी काव्य-कुशलता को सूचित करते है। नाटक की दृष्टि मे र० म० को सफल नहीं कहा जा सकता। एक सभ्य-दर्शक-समुदाय के सामने रगमच पर किसी राजा के द्वारा अपनी दोगनियो के सहित एक के बाद दूसरी के साथ काम-क्रीडा का दश्य दिखाना कहाँ तक सगत हो सकता है । प्रेमोल्लास के कथनो में गभीरता और सयम का विचार नही रक्खा गया। ये कथन मकेतमात्र होने की अपेक्षा भावो का खुल्लमखुल्ला प्रदर्शन करने वाले है। यह देख कर आश्चर्य होता है कि कहीं-कही नाट्यकार पात्रो के द्वारा कथनोपकथन आदि न करा कर रगमच के बाहर उन पात्रो के चरित्र की विवेचना करने लगता है (२, १८-२०, ३, ७, २१)।।
पूना की हस्तलिखित प्रति में शायद और उसी के आधार पर रभामजरी की छपी हुई प्रति में उसे नाटिका लिखा गया है (समाप्ता रम्भामजरी नाम नाटिका)। नयचद्र ने र० म० को सट्ट या सट्टक कहा है (१, १९) । तीन यवनिकान्तरो में नाटक समाप्त हो जाता है, किन्तु राजा की यह महत्त्वाकाक्षा कि वह चक्रवर्ती सम्राट् होगा अत मे पूर्ण नही मिलती, यद्यपि पहले यवनिकान्तर में राजा और रभा का परिणय तथा दूसरे और तीसरे मे दोनो की प्रेमक्रीडायो का वर्णन पूर्ण मिलता है। अत या तो नाटक अधूरा रह गया है या नाटककार ने प्रारभ में सूत्रधार के मुख से कहलाये हुए इस कथन को कि राजा चक्रवर्ती होगा, योही छोड दिया है । नाटक का तीन यवनिकान्तरो के बाद एक दम से ठप हो जाना तथा भरत-वाक्य का न होना भी इसी बात को सूचित करते है कि नाटक अधूरा रह गया है।
'यह नाम 'विद्धशालभजिका' में प्रयुक्त लाट के राजा चद्रवर्मन की याद दिलाता है।