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प्रेमी - श्रभिनवन-प्रथ
का लिखा हुआ एक प्राचीन प्रवध' उपलब्ध हुआ है, जिसमें निम्नलिखित मार्के की बातें मिलती है
'विजयचंद्र का लडका राष्ट्रकूट जैत्रचद्र कान्यकुब्ज देश मे वनारस का राजा था। उसकी रानी का नाम कर्पूरदेवी था तथा उसने एक गालापति की पुत्री सुहागदेवी से भी विवाह किया था । वगाल के राजा लक्ष्मणसेन तथा कल्याणकटक के परमर्दि को जैत्रचद्र ने पददलित किया। कविचद ने उसकी वडी प्रशसा की थी। जब जैन ने सुहागदेवी के लडके को अपना राज्य देने से इन्कार कर दिया तब सुहागदेवी ने सुरत्राण सहावदीन से महायता प्राप्त की। पृथ्वीराज ने सहाब्दीन का मुकाविला किया और योगिनीपुर में युद्ध हुआ। अपने शत्रु पृथ्वीराज की हार सुनकर जैत्रचद्र प्रसन्न हुआ, परन्तु उसके मंत्री को सन्देह हो गया कि सहावदीन उसके राज्य पर भी हमला करेगा। अपनी दूसरी चढाई में सुरत्राण स० १२४८ चैत्र शु० १० को बनारस आ धमका और उसने जैत्रचद्र पर विजय प्राप्त की । जैत्र यमुना नदी में डूब कर मर गया और उसका वडा बेटा युद्ध में काम आया । सुरत्राण ने पति को धोका देने के कारण सुहागदेवी के प्रति भी अपमानजनक व्यवहार किया और उसके लडके को तुरुष्क बना लिया ।'
मेरुतुग' ने अपने 'प्रवघ चितामणि' ग्रंथ में लिखा है कि काशी का जयचद्र, जो एक साम्राज्य का अधीश्वर 'प्राज्यसाम्राज्यलक्ष्मी पालयन्' था, 'पगु' कहलाता था। उसने एक शालापति की पुत्री सूहवा से विवाह किया था । उससे उत्पन्न पुत्र को युवराज उत्तराधिकारी न मानने पर सूहवा ने म्लेच्छो अथवा तुरुष्को को वाराणसी पर चढाई करने के लिए आमंत्रित किया । जब नगरी को उन लोगो ने घेर लिया तव राजा ने सूहवा के पुत्र को अपने हाथी के ऊपर विठा दिया और स्वयं यमुना की धारा में डूब गया ।
'राजशेखर' ने अपने प्रवधकोश नामक ग्रंथ में श्रीहर्षं प्रवन्ध के अन्तर्गत गोविंदचद्र के पुत्र जयतचद्र के विषय में इस प्रकार लिखा है कि वह बनारस का राजा था और 'पगुल' नाम से प्रसिद्ध था । उसने सूहवदेवी नामक एक कम तरुण और सुदरी विधवा से विवाह किया, जो पहले कुमारपाल के राज्य अणहिलपट्टन में रहने वाले शालापति की पत्नी थी। राजा जयतचद्र ने जब यह तय कर लिया कि राज्य का उत्तराधिकारी सूहवा के बेटे को न बनाकर कुमार मेघचद्र को बनाया जायगा तब सूहवादेवी क्रुद्ध हो उठी और उसने तक्षशिला से सुरत्राण को वनारस पर हमला करने के लिए ग्रामंत्रित किया । जयत युद्ध में पूर्ण रूप से परास्त हो गया और उसका राज्य शत्रु ने छीन लिया ।
जयचंद्र के पिता का नाम क्या था, इस पर सब प्रबंध एक मत नही है और न उनमे से कोई नयचद्र के ही कथन से सहमत है । आघुनिक इतिहास लेखकों ने इन राजाओ का वशक्रम इस प्रकार रक्खा है -
गोविदचद्र ( ल० १११४ - ११५५ ई० ) ।
विजयचद्र ( ल० १९५५ - ११७० ई० ) ।
जयचंद्र ( ल० ११७०-११९३ ई० ) ।
इस क्रम के अनुसार कहा जा सकता है कि या तो प्रवघकोश में जय और विजयचद्र के नामी को एक मान कर गडबडी पैदा कर दी गई है या अधिक सभव है कि विजयचंद्र का नाम भूल या प्रमादवश छोड दिया गया हो । रभामजरी से हमको यह भी मानना पडता है कि विजयचंद्र का दूसरा नाम मल्लदेव था । उसकी सात रानियो तथा प्राठवी रभा की वावत, जिनका वर्णन नयचद्र ने किया है, प्रबंधो में कोई उल्लेख नही मिलता। एक प्रबंध मे एक रानी का नाम कर्पूरदेवी मिलता है, परन्तु रभामजरी में कर्पूरिका एक दासी का नाम श्राता है । जैत्रचद्र वनारस का प्रतापी शासक था और उसकी उपाधि 'पगु' थी, ये दोनो बातें दोनो प्रवघग्रथो में मिलती है । पहले प्रबध मे उपाधि नही दी हुई है
१ 'पुरातन प्रबंध सग्रह, सपा० जिनविजय जी, सिंधी जैन प्रथमाला, २, कलकत्ता, १९३६, पृ० ८८-० जिनविजय जो द्वारा सिंघी प्रथमाला में प्रकाशित, शांतिनिकेतन, १६३३, पृ० ११३ - ११४
1 जिनविजयजी द्वारा सिंधी प्रथ० 'प्रका०, शातिनिकेतन, १६३५, पृ० ५४-५८
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'एच० सी० राय-दि डाइनेस्टिक हिस्ट्री ऑॉव नार्दर्न इन्डिया, भाग १, पृ० ५४८, कलकत्ता, १६३१