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प्रेमी-अभिनंदन ग्रंथ
तोमर वीरम के दरवारियो को चुनौती दी है, जो यह कहते थे कि तत्कालीन कवियो मे किसी में इतनी प्रतिभा न थी जो पहिले के कवियो जैसी उत्कृष्ट रचना कर सके । नयचद्र उद्घोषित करता है कि उसके काव्य में अमरचंद्र का लालित्य तथा श्रीहर्ष की वक्रिमा, ये दोनो गुण है । नयचद्र के समय के सबध में यह कहा जा सकता है कि वह ई०१३६५ ई० १४७८ के बीच में हुआ होगा । पहली तिथि उसके गुरु के शिक्षक जयसिंहसूरि रचित कुमारपालचरित की है तथा दूसरी तिथि पूना से प्राप्त रभामजरी की हस्तलिखित प्रति मे दी हुई है । तोमर वीरम राजा की पहचान निश्चित होने से हम अधिक निकट तिथि पर पहुँच सकते हैं । हम्मीर काव्य के सपादक ने लिखा है - ' तोमर वीरम राजा चाहे जो रहा हो, उसका समय अकवर से ७० वर्ष पहले प्रतीत होता है ।' इसकी पुष्टि के लिए कोई प्रमाण नही दिया गया है | ग्वालियर के तोमर राजाओ की वशावली' मे वीरम नाम का एक राजा है । उसके पोते डुगरेद्रदेव का समय १४४०१४५३ ई० मिलता है । दो पीढियो के लिए ५० साल के लगभग मान लेने पर उतना घटाने से १४०० ई० वीरम का समय आता है । वि० स० १४६२ में वीरम इकवालखाँ से लड़ा था । इस वीरम का कुशराज मंत्री था । उमी की विज्ञप्ति से पद्मनाभ कायस्थ ने यशोधर चरित्र की रचना की है (जैन- हितैपी, १५, २२३-२६) । अत हम नयचद्र का काल पन्द्रहवी शती के प्रारंभ में मान सकते हैं । जैसा कि नयचद्र की गुरु-शिष्य परपरा सूची से विदित होता है, वह जैन भिक्षु था, परन्तु उसके रचित मगलश्लोक, जो हम्मीरकाव्य में है, जैन तथा हिन्दू दोनो धर्मों के देवताओ पर लागू हो सकते हैं । रभामजरी के नादीपाठ में विष्णु की स्तुति वाराह अवतार के रूप में की गई है । नयचद्र कृत रभामजरी एक सट्टक है । यहाँ हम उसमें आये हुए विषयो की छानबीन करेगे तथा कुछ उसकी वातो पर आलोचनात्मक प्रकाश डालेंगे ।
१ नादीपाठ मे वाराह भगवान की प्रार्थना तथा युवतियो के हाव-भाव पूर्ण कटाक्षो के वर्णन द्वारा कामदेव की अभ्यर्थना करने के वाद सूत्रधार मदन भगवान की स्तुति करता है तथा ईश्वर और पार्वती का गुणगान करता है । फिर वह लवे-चौडे ढग से राजा जैत्रचद्र (या जयचद) उपनाम पगु का, जो मल्लदेव तथा चद्रलेखा से उत्पन्न हुआ था, कथन करता है कि उस जैत्रचद्र ने मदनवर्मन् के राज्य को छीना और वह यवनो को हराकर बनारस मे राज्यारूढ हुआ । इसके पश्चात् सूत्रधार नट से अपनी इच्छा प्रकट करता है कि ग्रीष्मऋतु की विश्वनाथ यात्रा के लिए एकत्रित भद्रजनो का एक प्रवन्ध नाट्यद्वारा मनोरजन किया जाय। इसके लिए वह उस सरस कथानक को उपयुक्त बताता है, जिसमें राजा जैत्रचद्र नायक है, जो एक सट्टक प्रवध है और जिसका नाम रभामजरी है। यह सट्टक सूत्रधार के कथनानुसार राजशेखर की कर्पूरमजरी से भी एक प्रकार से श्रेष्ठतर है । इसका लेखक नयचद्र है, जो सरस्वती देवी की कृपा के कारण छ भाषाओ का सुयोग्य कवि है और जिसने अपनी काव्य-प्रतिभा की समानता अमरचंद्र तथा श्रीहर्ष से की है । इस सट्टक मे राजा जैत्रचद्र, जो सात रानियो का पति है, रभा नामक आठवी रानी से विवाह करता है, जिससे वह अपना भूपति नाम सार्थक कर सके ।
राजा जैत्रचद्र चारण-भाटो के द्वारा संस्कृत, प्राकृत तथा मराठी मे अपना यशोगान सुनता हुआ अपनी रानियो के सहित प्रवेश करता है। मजरित रसाल की डाल पर से एक कोयल उन सब का स्वागत करती है। राजा श्रीर रानी एक दूसरे के प्रति सम्मान प्रकट करते है और वसन्तऋतु के अनुकूल उनकी अभ्यर्थना वन्दीजन के द्वारा की जाती है । इतने में विदूषक और कर्पूरिका के बीच में आक्रोश युक्त विवाद खडा हो जाता है। कर्पूरिका इस पर हँसती है कि विदूपक को सारी विद्वत्ता उसके श्वशुर आदि से प्राप्त हुई है और यह कह कर उसकी काव्य-प्रतिभा की हँसी उड़ाती है । वे दोनो अपनी अपनी रचनाएँ राजसभा मे सुनाते हैं । कर्पूरिका विजय प्राप्त करती है । विदूषक शर्मिन्दा होकर महल से चला जाता है। रानी चन्द्रोदय का वर्णन करती है । राजा नारायणदास के आने के लिए
'सी० एम० डफ दि क्रॉनॉलॉजी श्राव इंडिया पू० ३०६, वेस्टमिन्स्टर, १८६६, डो० प्रा० भडारकर ए लिस्ट प्रॉव इन्सक्रिप्शस ऑव नॉर्दर्न इडिया, पृ० ४०४ ।
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