________________ सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिशिका 403 विश्वयोनि के रूप में माना तथा वर्णन किया। उन तत्त्वचिन्तक सन्तो ने इस तत्त्व का अनेक प्रकार के विरोधाभासी वर्णनो द्वारा अलौकिक प्रकार से वर्णन किया है। इन दोनो भूमिकामो के फलितार्थ का एकीकरण करके कवि यहाँ कहता है कि यज्ञो में भिन्न-भिन्न शाखामो के द्वारा गाया जाने वाला, स्तुति किया जाने वाला पुरुप और तत्त्वज्ञ मन्तो मे गुहाध्यक्ष तथा विश्वयोनि रूप में प्रसिद्ध पुरुष यह एक ही है / ___ कोई योगी पुरुष गुफावासी और गुहा-अध्यक्ष हो वह हाथ पांव इत्यादि अग विस्तृत करके पडा रहता है, परन्तु वैसा पुरुष विश्वयोनि और अनेकवर्ण कैसे हो सकता है ? यह एक प्रकार का विरोध है, पर उसका परिहार आध्यात्मिक दृष्टि मे है / आध्यात्मिक दृष्टि से परमात्मा ही मुख्य पुरुष है, वह दृश्य जगत् के नीचे उसके उस छोर पर रहने के कारण अघ शायी भी है / और वह अपने शक्तिरुप अग प्रकृति के पट के ऊपर चारो ओर फैलने के कारण वितताङ्ग भी है / वह बुद्धिरूप गुफा मे स्फुरित होता है और हृदय गुफा का नियन्त्रण करता है इसलिए वह गुफा अध्यक्ष कहलाता है। और फिर भी वह विश्वयोनि तो है ही। वह पुरुप मूल मै अवर्ण या एकवर्ण होने पर भी विश्व में अनेक रूप से विलसता है इसलिए वह अनेकवर्ण भी है। प्रस्तुत पद्य के उत्तरार्ध के साथ में श्वेताश्वतर के नीचे के दो मन्त्र तुलना करने योग्य है। "यच्च स्वभाव पचति विश्वयोनि पाच्याश्च सर्वान्परिणामयेद्य" (55), “य एकोऽवर्णो वहुधा शक्तियोगाद्वर्णाननेकान्निहितार्थो दधाति" (41) / तेनैवैतद्वितत ब्रह्मजाल दुराचर दृष्टयुपसर्गपागम्'। . अस्मिन्मग्ना मानवा' मानशल्यैर्विवेष्यन्ते पशवो जायमाना // 18 // अर्य-उसके द्वारा ही यह ब्रह्मजाल विस्तृत है जो कि दुष्प्रवेश है और दृष्टि को उपसर्ग करने वाला है। इस ब्रह्मजाल में मग्न पुरुष पशु बन करके मानरूपी शल्य से विधे जाते है। भावार्य-यहाँ कवि ने ब्रह्माण्ड की जालरूप से कल्पना करके उसको फैलाने वाले के रूप मे परमात्मा का निर्देश करके सूचित किया है कि ब्रह्मजाल को फैलाने वाला जो जाली, धीवर या पारधी है वह परमात्मा ही है / जाल और ब्रह्माण्ड का माम्य स्पष्ट है। जाल में फंस जाने के बाद उसमें चलना, फिरना तया उसमें से निकलना कठिन हो जाता है। ब्रह्माण्ड भी ऐसा ही है। जाल में फंसने वाले को दृष्टि बन्द हो जाती है उसे कुछ भी दिखाई नही देता है। ब्रह्माण्ड में पडे हुए की दशा भी ऐमी ही होती है / जाल मे लुब्ध हो करके फंसे हुए मृग इत्यादि पशु उसके कण्टको और वन्धनो से घिरे जाकर विद्ध होते है / ब्रह्माण्ड में भी आसक्त होकर गर्क हुए पुरुष पशु की तरह से लाचार बन करके मानापमान के शल्यो से विधे जाते है। तुलना-प्रस्तुत पद्य मे जाली के रूप में परमात्मा का जैसा वर्णन है वैसा श्वेताश्वतर मे भी है। जैसे कि “य एको जालवानीगत ईशनीभि सर्वाल्लोकानीशत ईशनीभि / ' (31) “एकक जाल बहुधा विकुर्वन्नस्मिन्क्षेत्रे सचरत्येप देव / (53) / परन्तु यहाँ कवि ने 'दुराचर दृष्टयुपसर्गपाशम् / ' जैसे विशेषणो से जाल का स्पष्टीकरण विशेप किया है। और इसमे फंसने वाले मनुष्य पशु की तरह से किस प्रकार जकडे जाते है उसका सूचन किया है। यहां ब्रह्म जाल सूत्र (दीघनिकाय) याद आता है जिसमें 62 मिथ्यादृष्टियो के जाल का वर्णन है। अयमेवान्तश्चरति देवतानामस्मिन्देवा अधिविश्वे निषेदु / अयमुद्दण्ड प्राणभुक प्रेतयानरेप त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति // 19 // अर्य--यही देवताओं के अन्दर विचरण करता है, और सभी देव इसी के अन्दर रहे हुए है, यही दण्ड धारण करके प्रेतयानो से प्राणभोजी बनता है और यही तीन प्रकार से बद्ध होकर के वृषभरूप से वूम मारता है। 'पासम्म 0 'माननामा(न) शल्य-मु०