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सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिशिका
३६७ आदि अन्य इन्द्रियो के नियत विषय शब्द आदि को जानती है और पाँव इत्यादि कर्मेन्द्रियाँ भी वाक् आदि अन्य कर्मेन्द्रियो का कार्य करती है । परमात्मा मस्तक मे खड़े रहने और चलने का पाँव का कार्य करता है । यह कह कर कवि श्रत में वह तक जाता है कि परमात्मा के लिए कोई श्रमुक माघन किसी अमुक कार्य के लिए ही नहीं है, परन्तु उसके लिए तो सर्व साधन सर्व कार्यकारी है । इन प्रकार के प्रत्यन्त विरुद्ध दिखाई देने वाले वर्णन का तात्पर्य इतना ही है कि परमात्मा का स्वरूप लौकिक वस्तुग्री में निराला है और उसकी विभूति भी लौकिक विभूति में भिन्न है । योगशास्त्र के विभूतिपाद में जिन विभूतियों का वणन है वे विभूतिया योगी की होने पर भी प्रद्भुत है। गीता के ग्यारहवे श्रध्याय
कृष्ण ने अर्जुन को अपना घोर विश्वम्प बताया है यह भी योग की महिमा है । यहाँ तो कवि योगी मे भी भिन्न परमात्मा की स्तुति करता है । इमीलिए उसने चमत्कारी विरुद्वाभास वर्णन द्वारा अलोकिकत्व सूचित किया है ।
निङ्कोन का प्रस्तुत वर्णन बहुत पुराकाल ने चली थाने वाली कविप्रया के कितने ही मोपानो का अतिक्रमण करके श्रागे बढ़ा है। ऋग्वेद के कवि गण इन्द्र या ग्रग्नि आदि देवो की स्तुति करते है तव सहस्राक्ष जैसे विशेषण का उपयोग करके अपने अपने इष्टदेव को हजार आंखवाले के रूप मे महत्त्व अर्पित करते है । परन्तु पुरुषसूक्त का ऋषि पुरुष का वर्णन करते समय उसके माथ में केवन सहस्राक्ष विशेषण का प्रयोग करके ही सतुष्ट नही होता, वह तो पुरुष को महशीष श्री मनपाद भी कहता है । विश्वकर्मा मूक्त का प्रणेता हजार नेन, हजार पाँव, या हजार मस्तक ने नष्ट नहीं होता, वह तो विश्वसृष्टा देव को 'विश्वतश्चक्षुरुत विश्यतो मुखो विश्वतो वाहुरुन विश्वत यात् (ऋ० १०८१३) कहकर हजार या उसमें भी किसी बडी संख्या की श्रवगणना करता है। ऋग्वेद के विशेषण विकाम में कालनम की गन्य आती है । उसके बाद यजुर्वेद और अथववेद आदि गन्यो में इसी ऋग्वेद के विशेषण यत्र-तत्र प्राप्त होते है । उन विशेपणी का कालक्रम सूचक विकास चाहे जितना हुग्रा हो या विस्तृत हुआ हो फिर भी वेदो की स्तुतियां नगुण भूमिका ने श्रागे नही वही थी ऐसा कह सकते हैं ।
परन्तु धीरे-धीरं चिनव सगुण रूप मे श्रागे वढ करके निर्गुण चिंतन की ओर अग्रसर होते जाते थे । इसके लक्षण प्राचीन उपनिषदों और गीता में दृष्टिगोचर होते हैं । जब परब्रह्म की स्थापना हुई तव निर्गुण स्वरूप का चिंतन पराकाष्ठा को पहुँच चुका था। फिर भी तत्त्वचितको और कवियों ने पुरानी मगुण वर्णन की प्रथा को भी चालू रखी
। इसीलिए श्वेताश्वतर और गीताकार ने निर्गुण वर्णन करने पर भी 'महस्रशीर्षा पुरुष सहस्राक्ष सहस्रपात् ।' (०३-१८) उत्यादि रूप मे और 'सवंत पाणिपाद तत् मनोऽक्षिशिरोमुग्वम्' (ग्वे० ३ १६ ) इत्यादि रूप मे सगुण वणन भी किया है । छादोग्य प्रादि के अमरीग्ल वर्णन का (छादो ८-१२-१) अनुकरण करके मुण्डक परब्रह्म का यत्तददृष्यमग्राह्यमगोत्रमवणमचक्षु श्रोत्र तदपाणिपादम् ।' (मु० १-६) यादि म्प मे वर्णन करता है । जब कि श्वेताश्वतर उनका 'पाणिपादी जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षु स शृणोत्यकर्ण' (वे० ३-१६) आदि रूप मे विरोधाभासी मगुणस्वरूप वर्णन करता है ।
सिद्धमेन भी प्रस्तुत स्तुति में परमात्मा का निर्गुण और सगुण स्वरूप से स्तव करता है। इस पद्य में तो इन उभय स्त्रम्पी के वर्णन के अतिरिक्त एक ऐसा प्रतिभाजनित चमत्कार दृष्टिगोचर होता है कि जो उसके पूर्व के वेद, उपनिषद् और गोता आदि में नहीं दिखाई देता है। यह चमत्कार केवल विरोधाभास ही नही है परन्तु विरोधाभास की पराकाष्ठा भी है। मिद्धमेन जहाँ तक परमात्मा को निरिन्द्रिय होने पर भी इन्द्रियो के कार्यकर्ता कहता है वहाँ तक तो वह मुण्डक और श्वेताश्वतर मे आगे नही वढता है, परन्तु जब वह यह कहता है कि निरिन्द्रिय परमात्मा इन्द्रियो के कार्यं तो करता ही है, परन्तु इसके अतिरिक्त भी वह कान का काम आँख मे, आँख का काम कान से, नाक का जीभ से, वाणी का काम पाँव से और पाँव का काम मस्तक से करता है, किंबहुना उसके लिए कोई एक काम किसी एक साधन
ॠग्वेद १.२३. ३ ।