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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ
इसमें साख्य परिभाषा के द्वारा विरोवाभास गर्भित स्तुति है । "क्वचिन्नियतिपक्षपातगुरु गम्यते ते वच, स्वभावनियता प्रजा समयतत्रवृत्ता क्वचित् ।
स्वय कृतभुज क्वचित् परकृतोपभोगा. पुन
नंवा विषदवाददोषमलिनोऽस्यहो विस्मय ॥" सिद्ध० ३८
इसमे श्वेताश्वतर उपनिषद् के भिन्न-भिन्न कारणवाद के समन्वय द्वारा वीर के लोकोत्तरत्व का सूचन है ।
"कुलिशेन सहस्रलोचन सविता चाशुसहस्रलोचन ।
न विदारयितु यदीश्वरो जगतस्तद्भवता हत तम ॥" सिद्ध ४ ३
इसमे इन्द्र र सूर्य से उत्कृष्टत्व दिखा कर वीर के लोकोत्तरत्व का व्यजन किया है।
"न सद सु वदन्न शिक्षितो लभते वक्तृविशेषगौरवम् ।
अनुपास्य गुरु त्वया पुनर्जगदाचार्यकमेव निर्जितम् ॥” सिद्ध ०४७
इसमे व्यतिरेक के द्वारा स्तुति की है कि हे भगवन् । आप ने गुरु सेवा के बिना किये भी जगत का प्राचार्य पद पाया है जो दूसरो के लिए सम्भव नही ।
"उदघाविव सर्वसिन्धव समुदीर्णास्त्वयि सर्वदृष्टय ।
न च तासु भवानुदीक्ष्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधि ॥" सिद्ध० ४.१५.
इस सरिता और ममुद्र की उपमा के द्वारा भगवान् में सव दृष्टियो के अस्तित्व का कथन है जो अनेकान्तवाद की जड़ है ।
"गतिमानथ चापि पुमान् कुरुते कर्म फलैर्न युज्यते ।
फलभुक् च न चार्जनक्षमो विदितो यैविदितोऽसि तैर्मुने ॥" सिद्ध० ४२६
इमे विभावना विशेपोक्ति के द्वारा श्रात्म-विषयक जैन-मन्तव्य प्रकट किया है ।
किसी विजेता और पराक्रमी नृपति के गुणो की समग्र स्तुति लोकोत्तर कवित्व पूर्ण है । एक ही उदाहरण
देखिए-
" एका दिश व्रजति यग्दतिमद्गत च तत्रस्यमेव च विभाति दिगन्तरेषु ।
यात कथ दशदिगन्तविभक्तमूर्ति युज्येत वक्तुमुत वा न गत यशस्ते ॥ " सिद्ध० ११३
आद्य जैन वादी
दिवाकर ग्राद्य जैनवादी है । वे वादविद्या के सम्पूर्ण विशारद जान पडते हैं, क्योकि एक ओर उन्होने सातवी वादोपनिपद् वत्तीमी मे वादकालीन सव नियमोपनियमो का वर्णन करके कैसे विजय पाना यह बतलाया है तो दूसरी श्रोर थाठवी वत्तीसी मे वाद का पूरा परिहास भी किया है ।
दिवाकर प्राध्यात्मिक पथ के त्यागी पथिक थे और वादकथा के भी रसिक थे । इसलिए उन्हें अपने अनुभव मे जो आध्यात्मिकता और वाद-विवाद में असगति दीख पडी, उसका मार्मिक चित्रण म लुब्ध और लडने वाले दो कुत्तो मे तो कभी मैत्री की सम्भावना कहते है, पर दो सम्भव नही देखते । इम भाव का उनका चमत्कारी उद्गार देखिये -
किया है । वे एक मास पिण्ड
सहोदर वादियो में कभी सख्य
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"ग्रामान्तरोपगतयोरेकामिपसगजातमत्सरयो ।
स्यात्सीत्यमपि शुनोर्भ्रात्रोरपि वादिनोनं स्यात् ॥ ८ १