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प्रतिभा मूर्ति सिद्धसेन दिवाकर
विलम्बकेश्यो मलिनाशुकाम्वरा निरञ्जनैर्वाष्पहतेक्षणैर्मुखे । स्त्रियो न रेजुर्मृजया बिना कृता दिवीव तारा रजनीक्षयारुणा ॥ अरक्ततास्त्रैश्चरणैरनूपुरैह कुण्डलैरार्जवकन्धरैर्मुखं ।
स्वभावपीनैर्जघनैरमेखलैरहारयोक्त्रैर्मुषितैरिव
स्तनं ॥"
( अश्व० बुद्ध० सर्ग ८ - २०, २१, २२)
" तस्मिन्मुहूर्ते पुरसुन्दरीणामीशानसदर्शनलालसानाम् । प्रासादमालासु वभूवुरित्य त्यक्तान्यकार्याणि विचेष्टितानि ॥ ५६ ॥ विलोचनं दक्षिणमञ्जनेन सभाव्य तद्वञ्चितवामनेत्रा । तथैव वातायनस निकर्ष ययो शलाकामपरा वहन्ती ॥ ५६ ॥ तासा मुखैरासवगन्धगभर्व्याप्तान्तरा सान्द्रकुतूहलानाम् । विलोलनेत्र भ्रमरंगवाक्षा सहस्रपत्राभरणा इवासन् ॥ ६३॥ | " (कालि० कुमार० स० ७ )
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सिद्धसेन ने गद्य में कुछ लिखा हो तो पता नही है । उन्होने मस्कृत मे वत्तीस वत्तीसियाँ रची थी, जिनमे मे इक्कीम अभी लभ्य है। उनका प्राकृत में रचा 'सम्मति प्रकरण' जैनदृष्टि और जैनमन्तव्यो को तर्कशैली से स्पष्ट करने तथा स्थापित करने वाला जैनवाङ्मय मे सर्व प्रथम ग्रन्थ है, जिसका श्राश्रय उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर दिगम्बर विद्वानो ने किया है ।
कृत वत्तीयो मे शुरू की पाँच और ग्यारहवी स्तुतिरूप हैं । प्रथम की पाँच में महावीर स्तुति है, जब कि ग्यारहवी मे किमी पराक्रमी और विजेता राजा की स्तुति है । ये स्तुतियां अश्वघोष - समकालीन वौद्ध-स्तुतिकार मातृचंट के ‘अध्यर्धशतक' तथा पश्चाद्वर्ती आर्यदेव के चतु शतक की शैली को याद दिलाती है । सिद्धसेन ही जैन-परम्परा का श्राद्य मस्कृत स्तुतिकार है । श्राचार्य हेमचन्द्र ने जो कहा है "क्व सिद्धसेनस्तुतयो महार्था श्रशिक्षितालापकला क्व चैया" वह बिलकुल सही है । स्वामी समन्तभद्र की 'स्वयभूस्तोत्र' और 'युक्त्यनुशासन' नामक दो दार्शनिक स्तुतियाँ मिट्टमेन की कृतियों का अनुकरण जान पडती है । हेमचन्द्र ने भी उन दोनो का अपनी दो वत्तीमियो के द्वारा अनुकरण किया है ।
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बारहवी शताब्दी के प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में उदाहरण रूप से लिखा है कि 'अनुसिद्धसेन कवय ' । का भाव यदि यह हो कि जैन-परम्परा के मस्कृत कवियो में सिद्धसेन का स्थान सर्वप्रथम है ( समय की दृष्टि से और गुणवत्ता की दृष्टि मे अन्य सभी जैनकवियो का स्थान सिद्धसेन के वाद आता है) तो यह कथन आज तक के जैनवाङ्मय की दृष्टि मे अक्षरग मत्य है । उनकी स्तुति और कविता के कुछ नमूने देखिये ।
भूतसहस्रनेत्रमनेकमेकाक्षरभावलिङ्गम् ।
"स्वयभुव श्रव्यक्तमव्याहत विश्वलोकमनादिमध्यान्तमपुण्यपापम् ॥
समन्तमर्वाक्षगुण निरक्ष स्वयप्रभ सर्वगतावभासम् ।
श्रतीतसख्यानमनन्तकल्पमचिन्त्यमाहात्म्यमलोकलोकम् ॥
कुहेतुतर्को परतप्रपञ्चसद्भावशुद्धाप्रतिवादवादम् ।
प्रणम्य सच्छासनवर्धमान स्तोष्ये यतीन्द्र जिनवर्धमानम् ॥ " - सिद्ध० १, १–३
स्तुति का यह आरम्भ उपनिषद् की भाषा और परिभाषा में विरोधालकार गर्भित है ।
" एकान्त निर्गुणभावन्तमुपेत्य सन्तो यत्नार्जितानपि गुणान् जहति क्षणेन । क्लीवादरस्त्वयि पुनर्व्यसनोल्वणानि भुक्ते चिर गुणफलानि हितापनष्ट ॥” – सिद्ध० २.२३