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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ का जवाब देते हुए दिवाकर कहते है कि पुराने पुरुषो ने जो व्यवस्था स्थिर की है, क्या वह सोचने पर वैसी ही सिद्ध होगी? अर्थात् सोचने पर उसमे भी त्रुटि दिखेगी तव केवल उन मृत पुरुखो की जमी प्रतिष्ठा के कारण हाँ मे हाँ मिलाने के लिए मेरा जन्म नही हुआ है । यदि विद्वेषी वढते हो तो वढे ।
"पुरातनैर्या नियता व्यवस्थितिस्तत्रैव सा किं परिचिन्त्य सेत्स्यति ।
तथेति वक्तु मृतरूढगौरवादहन्न जात प्रथयन्तु विद्विष. ॥" (६. २) हमेशा पुरातन प्रेमी, परस्पर विरुद्ध अनेक व्यवहारो को देखते हुए भी अपने इष्ट किसी एक को यथार्थ और वाकी को अयथार्थ करार देते है। इस दशा से ऊब कर दिवाकर कहते है कि सिद्धान्त और व्यवहार अनेक प्रकार के है, वे परस्पर विरुद्ध भी देखे जाते है । फिर उनमे से किसी एक की सिद्धि का निर्णय जल्दी कैसे हो सकता है ? तथापि यही मर्यादा है, दूसरी नही, ऐसा एक तरफ निर्णय कर लेना यह तो पुरातन प्रेम से जड बने हुए व्यक्तियो को ही शोभा देता है, मुझ जैसे को नही--
"बहुप्रकारा स्थितय परस्पर विरोधयुक्ता कथमाशु निश्चय ।
विशेषसिद्धावियमेव नेति वा पुरातनप्रेमजडस्य युज्यते ॥" (६ ४) जव कोई नई चीज आई तो चट से सनातन सस्कारी कह देते है कि, यह तो पुराना नहीं है। इसी तरह किसी पुरातन वात की कोई योग्य समीक्षा करे तव भी वे कह देते है कि यह तो बहुत पुराना है। इसकी टीका न कीजिये। इस अविवेकी मानम को देख कर मालविकाग्निमित्र में कालिदास को कहना पडा है कि
"पुराणमित्येव न साधु सर्व न चापि काव्य नवमित्यवद्यम् ।
सन्त परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढ परप्रत्ययनेयबुद्धि ॥" ठीक इसी तरह दिवाकर ने भी भाष्यरूप से कहा है कि यह जीवित वर्तमान व्यक्ति भी मरने पर आगे की पीढी की दृष्टि से पुराना होगा, तव वह भी पुरातनो की ही गिनती मे आ जायगा। जब इस तरह पुरातनता अनवस्थित है अर्थात् नवीन भी कभी पुरातन है और पुराने भी कभी नवीन रहे, तब फिर अमुक वचन पुरातन कथित है ऐसा मान कर परीक्षा विना किये उस पर कौन विश्वास करेगा?
"जनोऽयमन्यस्य मृत पुरातन पुरातनरेव समो भविष्यति ।
पुरातनेष्वित्यनस्थितेषु क पुरातनोक्तान्यपरीक्ष्य रोचयेत् ॥" (६ ५) पुरातन प्रेम के कारण परीक्षा करने में आलसी बन कर कई लोग ज्यो-ज्यो सम्यग् निश्चय कर नही पाते है, त्यो त्यो वे उलटे मानो सम्यग् निश्चय कर लिया हो इतने प्रसन्न होते है और कहते है कि पुराने गुरुजन मिथ्याभाषी थोडे हो सकते हैं ? मैं मन्दमति हूँ। उनका प्राशय नही समझता तो क्या हुआ? ऐसा सोचने वालो को लक्ष्य में रख कर दिवाकर कहते है कि वैसे लोग आत्मनाश की ओर ही दौडते है
"विनिश्चय नैति यथा यथालसस्तथा तथा निश्चितवत्प्रसीदति ।
अवन्ध्यवाक्या गुरवोऽहमल्पधीरिति व्यवस्यन् स्ववधाय धावति ॥” (६. ६) शास्त्र और पुराणो मे दैवी चमत्कारो और असम्बद्ध घटनामो को देख कर जव कोई उनकी समीक्षा करता है तब अन्धश्रद्धालु कह देते हैं कि भाई । हम ठहरे मनुष्य और शास्त्र तो देवरचित है। फिर उनमे हमारी गति ही क्या? इस सर्व सम्प्रदाय-साधारण अनुभव को लक्ष्य में रख कर दिवाकर कहते है कि हम जैसे मनुष्यरूपधारियो न ही, मनुष्यो के ही चरित, मनुष्य अधिकारी के ही निमित्त ग्रथित किये है। वे परीक्षा में असमर्थ पुरुषो के लिए अपार और गहन भले ही हो, पर कोई हृदयवान् विद्वान् उन्हे अगाध मान कर कैसे मान लेगा? यह तो परीक्षापूर्वक ही उनका स्वीकार-अस्वीकार करेगा