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सिद्धसेन दिवाकरकृत देदवादद्वात्रिंशिका
३८५ विचार देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्धसेन के कविमानस मे कोई एक ही ग्रन्थ रममाण नही था, फिर भी यह प्रतीत होता है कि तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले जो प्राचीन उपनिषद् है और मन्त्र-ब्राह्मण में तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले जो प्रसिद्ध सूक्त है उन सब में से श्वेताश्वतर उपनिषद् का प्रभाव कविमानस के ऊपर अधिक प्रमाण में पड़ा है। यह सत्य है कि श्वेताश्वतर उपनिषद् की रचना केवल पाशुपत सम्प्रदाय का अनुसरण करके हुई है जब कि बत्तीसी केवल पाशुपत सम्प्रदाय मे बद्ध न रह कर पौराणिक त्रिमूर्तिवाद का भी आश्रय लेती है।
साख्य के विकास की भूमिकाएँ इस वत्तीसी में औपनिषद पुरुष का साख्य-योग तत्त्वज्ञान की प्रक्रिया और परिभाषा द्वारा पौराणिक त्रिमूर्ति रूप से वर्णन हुआ है। इसलिए बत्तीसी और उसका विवेचन सरलता से समझा जा सके तदर्थ प्रास्ताविक रूप में साख्य-योग तत्त्वज्ञान का विशिष्ट स्वरूप उसके विकासक्रम के अनुसार यहां दिखलाना आवश्यक है।
साख्य-परम्परा के प्रवाह से सम्बन्ध रखने वाले विचार के भिन्न-भिन्न स्तरो का सुनिश्चित कालक्रम दिखलाना किसी के लिए शक्य नही है। फिर भी मानवबुद्धि के विकास की भूमिकाओ के विचार से और भिन्न-भिन्न साहित्यिक प्रमाणो के ऊपर से हम उस परम्परा के तत्त्वज्ञान की भूमिकाओ का पौर्वापर्य ठीक-ठीक निश्चित कर सकते है । विशाल अर्थ मे साख्य परम्परा दूसरी किसी भी भारतीय तत्त्वज्ञान की परम्परा की अपेक्षा अधिक प्राचीन और व्यापक है। प्राचीनता तो इससे भी सिद्ध है कि उसके जितने स्तर प्राचीन भारतीय वाड़मय में प्राप्त होते है उतने स्तर दूसरी किसी एक भी परम्परा के प्राप्त नहीं होते। उसकी व्यापकता का ख्याल तो इससे ही आ सकता है कि वेद, उपनिषद्, महाभारत, गीता, पुराण, वैद्यक, काव्य-नाटक आदि सस्कृत वाड्मय तथा सन्त साहित्य और जैन-बौद्ध परम्परा के प्राचीन ग्रन्थ, इन सब में एक अथवा दूसरे रूप से अल्प या अधिक प्रमाण मे साख्य परिभाषा और साख्य तत्त्वज्ञान दृष्टिगोचर हुए बिना नहीं रहता। इतना ही नही, प्राचीन औपनिषद चिन्तन या दर्शन और वौद्ध दर्शन की भूमिका तया वैष्णव-शैव आदि आगमावलम्बी परम्पराएँ और उत्तरकालीन वेदान्त की सभी परम्पराओ की मूल भूमिका साख्य परिभाषा, साख्य प्रक्रिया और साख्य विचार से ही बनी है।
ऐसा प्रतीत होता है कि साख्यविचार के प्रथम स्तर का निर्माण भौतिक जगत अथवा प्रकृति के स्थूल भाग का आश्रय लेकर हुआ होगा, जो एक अथवा दूसरे रूप से चार्वाक के नाम से अथवा भौतिकवाद के नाम से आज तक साहित्य में सुरक्षित रहा है। इस स्तर में प्रकृति का चिन्तन सूक्ष्म या अव्यक्त रूप में प्रारम्भ नही हुआ था, परन्तु वह पृथ्वी, जल आदि स्थूल और व्यक्त रूप का अवलम्बन लेकर ही चलता था। पुरुष या आत्मा की कल्पना इस स्तर में विनश्वर स्थूल भूतो के मिश्रण जन्य एक प्रकार से आगे नही बढी थी। दूसरा स्तर इस स्थल भूत के कारणविषयक चिन्तन में से उत्पन्न हुआ हो ऐसा प्रतीत होता है । स्थूल और व्यक्त दिखाई देने वाले तत्त्वो का कारण क्या है ? उसका कछ कारण तो होना ही चाहिए-इस प्रश्न के उत्तररूप से सूक्ष्म भौतिक तत्त्व की कल्पना अव्यक्त-प्रकृतिरूप मे स्थिर हुई और इस कल्पना के साथ ही पुरुष का अर्थ स्थूल और क्षर भौतिक परिणाम मे वद्ध न रह करके वह अव्यक्त-प्रकृति पर्यन्त विस्तृत हुआ और जो व्यक्त जगत् का अव्यक्त या अदृश्य कारण है, वही पुरुषरूप में माना जाने लगा। व्यक्त या स्थूल भौतिक जगत् क्षर, चर या विनश्वर है तो क्या उसके कारण अव्यक्त को भी वैसा ही मानना चाहिए ? यदि वह भी वैसा ही क्षर हो तो पुन उसका मूल कारण दूसरा मानना पडेगा और इस प्रकार से तो किसी वस्तु का अन्त नही आवेगा। इस विचार मे से व्यक्त और क्षर जगत् के कारणरूप से माना गया अव्यक्त तत्त्व अक्षर, नित्य, अविनश्वर कल्पित हुआ। और यही पुरुष या आत्मा या जीव तत्त्व है ऐसी विचार सरणी