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प्रतिभा-मूर्ति सिद्धसेन दिवाकर
१० सुखलाल सघवी
भारतीय दर्शन अध्यात्मलक्षी है। पश्चिमीय दर्शनो की तरह वे मात्र बुद्विप्रधान नहीं है। उनका उद्गम ही आत्मशुद्धि की दृष्टि मे हुया है। वे प्रात्मतत्त्व को और उसकी गुद्धि को लक्ष्य में रखकर ही वाह्य जगत् का विचार करते है । इमलिए सभी ग्रास्तिक भारतीय दर्शनो के मौलिक नत्त्व एक से है।
जैनदर्शन का बोत भगवान महावीर और पार्श्वनाथ के पहले से ही किमी-न-किसी रूप में चला आ रहा है, यह वस्नु इतिहाम निट है । जैन दर्शन की दिशा चारित्र-प्रधान है, जो कि मूल आधार प्रात्मशुद्धि की दृष्टि से विशेष मगत है । उममे जान, भक्ति प्रादि तत्त्वो का स्थान अवश्य है, पर वे नभी तत्त्व चारित्र-पर्यवमायी हो तभी जैनत्व के माय मगत है। केवल जन परम्परा मेही नहीं, बल्कि वैदिक, बौद्व आदि मभी परम्परामो मे जव तक आध्यात्मिकता का प्राधान्य ग्हा या वस्नुत उनमें आध्यात्मिकता जीवित रही तब तक उन दर्शनो मे तर्क और वाद का स्थान होते हुए भी उमका प्राधान्य न रहा । इसलिए हम सब परम्परानो के प्राचीन ग्रन्यो मे उतना तर्क और वाद-ताण्डव नही पाते है, जितना उत्तरकालीन ग्रन्यो म ।
आध्यात्मिकता और त्याग की मर्वमाधारण मे नि सीम प्रतिष्ठा जम चुकी थी। अतएव आध्यात्मिक पुरुपो के आसपास सम्प्रदाय भी अपने आप जमने लगते थे। जहाँ मम्प्रदाय वने कि फिर उनमे मूलतत्त्व मे भेद न रहने पर भी छोटी-छोटी बातो में और अवान्तर प्रश्नों में मतभेद और तज्जन्य अवान्तर विवादो का होते रहना स्वाभाविक है। जैसे-जैसे सम्प्रदायो की नीव गहरी होती गई और वे फैलने लगे, उनमे परम्पर सघर्प भी वढता चला, जमे अनेक छोटे-बडे राज्यों के बीच चढा-उतरी का मघर्प होता रहता है। राजकीय मघों ने लोकजीवन मे जितना क्षोभ उत्पन्न किया है, उतना ही क्षोभ, वल्कि उसमे भी अधिक माम्प्रदायिक मर्प ने किया है। इस संघर्ष में पड़ने के कारण मभी आध्यात्मिक दर्शन तर्कप्रधान बनने लगे। कोई आगे तो कोई पीछे, पर मभी दर्शनो मे तर्क और न्याय का बल वढना गुन हुना। प्राचीन समय में आन्वीक्षिकी एक सर्वमाधारण खाम विद्या थी, उमका आधार लेकर धीरे-धीरे मव मप्रदायो ने अपने दर्शन के अनुकूल प्रान्वीक्षिकी की रचना की। मूल आन्वीक्षिकी विद्या वैशेषिक दर्शन के साथ घुल मिल गई। पर उमके आधार मे कभी वौद्ध परम्परा ने तो कभी मीमासको ने, कभी साख्य ने तो कभी जैनोने, कभी अद्वैत वेदान्त ने तो कभी अन्य वेदान्त परम्परानो ने अपनी स्वतन्त्र आन्वीक्षिकी की रचना शुरू कर दी। इस प्रकार इस देश में प्रत्येक प्रधान दर्शन के साथ एक या दूसरे स्प मे तर्कविद्या का सवध अनिवार्य हो गया।
जव प्राचीन प्रान्वीक्षिकी का विशेष बल देखा तव वौद्धो ने मभवत सर्वप्रथम अलग स्वानुकूल आन्वीक्षिकी का खाका तैयार करना शुरू किया, सभवत उमके वाद ही मीमासको ने। जनसम्प्रदाय अपनी मूल प्रकृति के अनुसार अधिकतर सयम, त्याग, तपस्या आदि पर विशेप जोर देता आ रहा था, पर आसपास के वातावरण ने उसे भी तर्कविद्या की ओर झुकाया । जहाँ तक हम जान पाये है, उससे मालूम पड़ता है कि विक्रम की पांचवी शताब्दी तक जनदर्शन का स्वतन्त्र तर्कविद्या की ओर ग्वास झुकाव न था। उसमे जैसे-जैसे सस्कृत भाषा का अध्ययन प्रवल होता गया वैसे-वैमे तर्क-विद्या का प्रार्पण भी बढता गया। पांचवी शताब्दी के पहले के जैन वाड्मय और इसके बाद के जैन वाड्मय मे म स्पप्ट भेद देखते है । अब देखना यह है कि जैन वाड्मय के इस परिवर्तन का आदि सूत्रधार कौन है ? और उमका स्थान भारतीय विद्वानो मे कैसा है ?
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