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जन-मान्यता में धर्म का प्रादि समय और उसकी मर्यादा
कर्तव्य समझ ले । साथ ही अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहता को अपने जीवन में समाविष्ट कर ले। इसके बिना न तो विश्वमघ की स्थापना हो सकती है और न दुनिया में मुखशान्ति का माम्राज्य ही कायम हो मकता है। विश्ववद्य महात्मा गाँधी विश्व मे शान्ति स्थापित करने के लिए इसी बात को आज विश्व के सामने रख रहे है, परन्तु यह विश्व का दुर्भाग्य है कि उसका लक्ष्य अभी इस पोर नहीं है।
इम प्रकार भगवान ऋपमदेव ने जिम धर्म को आत्मकल्याण और विश्व में व्यवस्था कायम करने के लिए चुना था, वह क्रोव, मान, माया, लोभ आदि विकागे से गन्य मानमिक पवित्रता तथा अहिमा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहता विशिष्ट वाह्य प्रवृत्ति स्वस्प है । हम देखते है कि आज भी इसकी उपयोगिता नष्ट नहीं हुई है और भविष्य में तो मानव-ममष्टि में मानवता के विकास का यही एक अद्वितीय चिह्न माना जायगा। भगवान ऋषभदेव मे लेकर चौबीसवे तीर्थकर भगवान महावीर पर्यन्त मव तीर्थंकरी ने भगवान ऋपभदेव द्वारा प्रतिपादित इमी धर्म का प्रकाग एव ममुत्यान किया है। इनके अतिरिक्त आगे या पीछे जिन महापुरुषो ने धर्म के बारे में कुछ गोव की है वह भी इममे परे नहीं है। अर्थात् न केवल भारतवर्ष के,अपितु विश्व के किमी भी महापुरुप द्वागजब कभी धर्म की आवाज बुलन्द की गई हो, उम धर्म की परिभापा भगवान ऋपभदेव द्वारा प्रतिपादित धर्म की परिभाषा मे भिन्न नहीं हो मकती है। इसका कारण यह है कि एक ही देश में रहने वाली भिन्न-भिन्न मानव ममप्टियों की तो बात ही क्या, दुनिया के किमी भी कोने में रहने वाले मनुप्यो के जीवन मवधी आवश्यकतानो में जव भेद नहीं किया जा सकता है तो उनके धर्म में भेद करना मानव समष्टि के माय घोर अन्याय करना है। इसलिए वर्म के जैन, बौद्ध, वैदिक, इम्लाम, क्रिश्चियन इत्यादि जो भेद किये जाने है, ये मव किमी हालत में वर्म के भेद नहीं माने जा सकते हैं। वर्मम्प वस्तु तो इन सव के अन्दर एक म्प ही मिलेगी और हम इनके अन्दर जो कुछ भेद दिग्वलाई देता है वह भेद या तो धर्म का प्रतिपादन करने या उसके प्राप्त करने के तरीको का है या फिर वह अधर्म ही कहा जायगा।
इस तरह अपने जीवन को मुख-गान्तिमय बनाने के उद्देश्य मे मानव-ममप्टि में सुख-शान्ति का वातावरण लाने के लिए प्रत्येक मनुष्य को जिस प्रकार अपनी कोष, मान, माया, लोभ श्रादि मानसिक दुर्वलतानो को कम करना तथा हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह स्त्रम्प प्रवृनि को रोकना पादश्यक है उसी प्रकार परम्पर मोहाई,महानुभनि और महायता प्रादि बातें भी आवश्यक है। इसलिए इन सब बातों का ममावेग भी धर्म केही अन्दर किया गया है। इसके अतिरिक्त अपने जीवन को सुखी बनाने में शारीरिक स्वास्थ्य को भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। अत शारीरिक स्वास्थ्य मपादन के लिए जो नियम-उपनियम उपयोगी सिद्ध होते है उन्हें भी जैन-मान्यता के अनुमार धर्म की कोटि में रक्वा गया है। जैसे पानी छानकर पीना, रात्रि में भोजन नही करना, मद्य, मांस और मधु का मेवन नहीं करना, अमावधानी मे तैयार किया हृया भोजन नहीं करना, भोजन में ताजा और ममत्त्व प्राटा, चावल, मागफल आदि का उपयोग करना, उपवास या एकागन करना, उत्तम मगति करना आदि इन सब प्रवृत्तियो को धर्म रूप ही मान लिया गया है नया ऐमी प्रवृत्तियो को अधर्म या पाप मान लिया गया है, जिनके द्वारा माक्षात् या परपरा से हमारे गारीरिक स्वास्थ्य को हानि पहुंचने की सभावना हो या जो हमारे जीवन को लोकनिंद्य और कप्टमय बना रही हो । जुवा खेलना, गिकार गेलना और वेश्यागमन आदि प्रवृत्तियाँ इस अधर्म की ही कोटि में आ जाती है। जैन मान्यता के अनुसार अभक्ष्यममण को भी अधर्म कहा गया है और अभक्ष्य की परिमापा म उन चीजों को सम्मिलित किया गया है, जिनके खाने से हम कोई लाभ न हो अथवा जिनके तैयार करने में या साने में हिमा का प्राधान्य हो अयवा जो प्रकृति विरुद्ध हो या लौकिक दृष्टि में अनुपमेव्य हो। जैन मान्यता के अनुसार अधिक खाना भी अधर्म है और अनिच्यापूर्वक कम ग्वाना भी अधर्म है । तात्पर्य यह है कि मानव-जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति को जन-मान्यता में धर्म और अधर्म की कमोटी पर कम दिया गया है । आज भले ही पचडा कहकर इन मव वातो के महत्व को कम करने की कोगिग की जाय, परन्तु इन सब बातो की उपयोगिता स्पष्ट है । पूज्य गाँधी जी का भोजन में हाथ-चक्की से पिमे हुए ताजे पाटे का और हाथ से फूटे गये चावल का उपयोग करने पर जोर देना तथा प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रत्येक