________________
विक्रमसिंह रचित पारसी - सस्कृत कोष
३६६
कोप के प्रथम प्रकरण के श्लोक २६ से, जहाँ नगर शब्द का फारमी पर्याय देकर अणहिलपाटक (पाटण) का फारसी रुप 'निहरवल' दिया यह अनुमान किया जा सकता है कि विक्रमसिंह पाटण का रहने वाला था, क्योकि फारमी मे कई नगरो के विशेष नाम है--प्रयाग का अलाहाबाद, राजनगर का अहमदावाद, परन्तु विक्रमसिंह ने पाटण कोही लिया है। कोपकर्ता की उपाधि म० महतो ( गुजराती = महेतो) भी इस बात की सूचक है कि वह गुजराती था ।
यह कोप जैनो मे काफी प्रचलित रहा होगा । इसके दो पद्य जिनप्रभसूरि विरचित पारमी भाषा के प भम्तव की टीका में उद्धृत किये गये है ।' यह टीका शायद लावण्यसमुद्र गणी की रचना है, जिसे उनके शिष्य मुद्र ने लिपिबद्ध किया। यदि ये उदयममुद्र खरतर गच्छीय है तो इनका सत्ताकाल म० १७२८ के आसपास है ।" अत इम कोप की रचना तीन सौ वरस से पहिले की होनी चाहिए ।
कोप में अनुमानत १,००० फारसी शब्दो के मस्कृत पर्याय दिये है । कर्ता के कथनानुसार इसका परिमाण ३६० ग्रंथ (३२ प्रक्षर का श्लोक ) है ।" यह पाँच प्रकरणो में विभक्त है - ( १ ) जाति प्रकरण (२) द्रव्य प्रकरण, (३) गुण प्रकरण, (४) क्रिया प्रकरण और (५) सामान्य प्रकरण, जिन मे क्रम मे १११, ६६, १५, ३१ और ३५ श्लोक है ।
इम कोप में सन्धि-नियमो का प्रयोग वैकल्पिक रूप मे किया गया है । कभी-कभी फारसी शब्द के साथ प्रथमा विभक्ति लगा कर मन्धि कर दी गई है । इसमे प्राय पहिले फारसी शब्द देकर फिर मम्कृत पर्याय दिया है, लेकिन कही-कही इस क्रम का व्यत्यय हो गया है । फारसी में लिंग के कारण गब्दो में भेद नही पडता, श्रीर न इसमें तीन वचन ही होते है ।" हम यह तो निर्णय नहीं कर सकते कि फारमी भाषा के इतिहास में इसका कितना उपयोग है, लेकिन कई अन्य दृष्टियों से इन कोप का वडा महत्त्व है । जैसे
'वसुन्धरा दुनीए स्यात् पत्तन सहरु स्मृतम्
ग्रामो दिहस्तथा देश उलातु परिकीर्तिति ॥ २५ ॥ तस्मिन् निहरवलो श्रीमदणहिल्लपाटकम्
लोक कसस्तया प्रोक्तो बुधखाना सुरालय ॥ २६ ॥
,
''जैनमत्यप्रकाश', खड६, श्रक ८, पृ० ३८८-६० ।
'मोहनलाल दलीचद देशाई कृत जैन साहित्यनो सक्षिप्त इतिहास, पैरा० ६७६ । ४ प्रत्यक्षरगणनात शतानि त्रीण्यनुष्टुभाम् ।
( कोप - प्रशस्ति)
पण्यधिकानि विज्ञेय प्रमाण तस्य निश्चितम् ॥३॥ शब्दस्य भेदाश्चत्वारो जातिद्रव्यगुणक्रिया । ततस्तदनुसारेण वच्मि किंचिद् यथामति ॥ ३ ॥ प्रायो दुरवबोधत्वात् सधिकार्यं कृत न हि । अन्यथा स्यादपभ्रश कष्टं सस्कृतयोजितु ॥४॥ सस्कृतोक्ति क्वचित् पूर्वं ततः स्यादनु पारसी । पारस्यपि क्वचित् पूर्वं संस्कृतोक्तिस्तत कृता ॥ ५॥ पुस्त्रीनपुसकत्वाद्यैलिङ्गर्भेदो न दृश्यते । एक द्वि agरूपैश्च वचनंरत्र न निश्चितम् ॥ ६ ॥
४७
५