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प्रेमी-पभिनदन-प्रथ
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१-फारसी-सस्कृत कोषो की नख्या अति अल्प है । इस समय इसके अतिरिक्त केवल चार कोष ज्ञात है। अत एक नये कोप की उपलब्धि हर्ष का विषय है।
२-तस्कृत-प्राकृत मिश्रण का अद्भुत उदाहरण । इस कोप का मगलाचरण सस्कृत-प्राकृत मे रचा हुआ है, अर्थात् इसका पयम पाद नस्कृत मे, हिलोय महाराष्ट्री मे, तृतीय शौरसेनी मे और चतुर्थ मागधी मे।
एक ही पद्य में विभिन्न भाषाओ का प्रयोग अन्य भापाओ मे भी हुआ है। जैसे-हिन्दवी और फारमी का रेखता, जिसमे अमीर खुसरो ने रचना की। सस्कृत और द्राविडी भाषाओ (कण्णड, मलयालम प्रादि)का मिश्रण, जिसे 'मणि प्रवालम् कहते है। इस शैली में जैनाचार्यों ने अनेक स्तोत्र रचे है। भीमकुमार कथा तो सारी ही मस्कृतमहाराष्ट्री मिश्रण में है। लेकिन चारो पदो में विभिन्न भाषाओ के उदाहरण वहुत थोडे है।
३-इस कोप का दूसरा पद्य फारसी भाषा और गार्दूल विक्रीडित छन्द में है। अम्बाला वाली प्रति के अन्तिम पृष्ठ पर इस पत्र की नस्कृत व्याख्या दी है, जो शायद किसी अन्य लेखक की कृति है। इस व्याख्या में 'रहमाण शब्द को सस्कृत प्रकृति प्रत्यय से निह करके इसका अर्थ 'वीतराग किया है। इसमे किमी कुरानकार
'(१) पारसी-नाममाला या-शब्दविलास । स० १४२२ में सलक्षमत्री द्वारा रचित । परिमाण ६०० अन्य । जैन ग्रन्यावली पृ० ३११ ।
(२) पारसी प्रकाश । प्रकवर के समय में कृष्णदास द्वारा रचित । इसने सत्कृत सूत्रो में पारसी व्याकरण भी रचा। ए० वेबर द्वारा सपादित, कोष १८८७, व्याकरण १८८६ (जर्मनी)।
(३) पारती प्रकाश । स० १७०० में वेदाङ्गराय द्वारा रचित । (४) पारसी विनोद । स० १७१६ में रघुनाथ-सनु व्रजभूषण द्वारा रचित । 'यद्गौरातिदेह सुन्दररदज्योत्स्नाजलौघे मुदा दछृणासण सेयपकमिण नूण सर माणस । एय चितिय झत्ति एस करदे न्हाणनि हसो मदि सा पक्खालदु भालदी भयवदी जड्डाणुलित मण ॥१॥
अर्य-जिस (भारती) की गौरवर्ण देह और सुन्दर दन्त (पक्ति) को ज्योत्स्ना रूपी जलसमूह में (उसके) प्रासन रूपी श्वेत कमल को देख कर और ऐसा विचार कर कि 'सचमुच यह मानसरोवर है', (उसका वाहन) हस स्नान करने की सोचता है, वह भगवती भारती (हमारे) जडता से लिप्त मन का प्रक्षालन करे।
जैन सत्य प्रकाश-वर्ष ८, अक १२, पृ० ३६२-६४ । 'दोस्ती ब्वाद तुरा न वासय कुया हामाचुनी द्रोग हसि, चीजे आमद पेसि तो दिलुसुरा बूदी चुनी कीम्बर । त वाला रहमाण वासइ चिरा दोस्ती निसस्ती इरा, अल्लाल्लाहि तुरा सलामु बुजिरुक् रोजी मरा मे देहि ॥
अर्य-हेल्वामिन् । 'तेरा किसी में अनुराग नहीं है, यह सब झूठ है। जो कोई तेरे सामने भक्तिभाव से आता है, चाहे वह किंकर ही हो, हे वीतराग । तू उससे क्यो अनुराग करता है ? इसलिए हे अल्लाह | तुझे नमस्कार हो । मुझे भी महतो विभूति दे।
'रहमाण शब्दस्य कृता व्युत्पत्तिर्यथा--रह त्यागे इति चौरादिको विकल्पेनन्तो धातु । रहयति रागद्वेष कामक्रोवादिकान् परित्यजतीत्येव शक्त इति विग्रह शक्तिवयस्ताच्छोल्य इति शानड् प्रान्मोन्त आने इति मोन्त । रवणेभ्योति॒र्णेत्यादिना णत्वम् इति रहमाण ।कोर्थ रागद्देष विनिर्मुक्त श्रीमान् वीतरागो रहमाण । नान्यः कश्चित्, तस्य सम्बोधनम् ।