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प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ आगम ये तीन प्रमाण फलित होते है । यह प्रमाणत्रित्ववाद सिद्धसेन दिवाकर से प्रारभ हुआ और यही तक सीमित रहा। उत्तरकालीन प्राचार्यों ने इसे नहीं अपनाया। इन्होने न्यायावतार के प्रथम श्लोक मे ही ज्ञान को प्रमाणता का प्राधार मोक्षमार्गोपयोगिता के स्थान मे 'मेयविनिश्चय' बताया है। अर्थात् जो ज्ञान पदार्थों का ययार्थ निश्चय करे वह प्रमाण, अन्य अप्रमाण ।
स्वामी समन्तभद्र ने 'आप्तमीमासा' (का० ६७) मे 'वुद्धि और शब्द की प्रमाणता और अप्रमाणता वाहार्य को प्राप्ति और अप्राप्ति से होती है, यह लिखा है। अर्थात् जिस बुद्धि के द्वारा प्रतिभामित पदार्थ ठोक उसी रूप में उपलब्ध हो जाय वह प्रमाण अन्य अप्रमाण । इस तरह सिद्धसेन और ममन्तभद्र के युग मे ज्ञान की सत्यता का आधार मोक्षमार्गोपयोगिता के स्थान में मेयविनिश्चय या अर्याप्त्यनाप्ति--अर्थ की प्राप्ति और अत्राप्ति-वनी।
जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण (वि० ७वी शताब्दी) ने लौकिक इन्द्रिय प्रत्यक्ष को जिसे अभी तक परोक्ष ही कहा जाता था और इससे एक प्रकार से लोक व्यवहार मे असमजगता आती थी, अपने 'विशेपावश्यकभाष्य (गा०६५) मे सव्यवहारप्रत्यक्ष सज्ञा दी, अर्थात् आगमिक परिभाषा के अनुसार यद्यपि इन्द्रियजन्य ज्ञान परोक्ष ही है, पर लोकव्यवहार के निर्वाहार्थ इन्द्रियजन्य ज्ञान को सव्यवहारप्रत्यक्ष कह सकते है। इस तरह आगमिक तया दर्शनान्तरीय एव लौकिक परम्परा का समन्वय किया गया।
भट्टारक अकलङ्कदेव ने (वि० ८वी), जो सचमुच ही जैन प्रमाण शास्त्र के सजीव प्रतिष्ठापक कहे जाते हैं अपने 'लघीयस्त्रय' (का० ३, १०) मे प्रथमत प्रमाण के दो भेद करके फिर प्रत्यक्ष के स्पष्टत मुख्यप्रत्यक्ष और सव्यवहार प्रत्यक्ष ये दो भेद किये है। और परोक्ष प्रमाण के भेदो में स्मृति प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और पागम इन पांच को स्थान दिया। इस तरह प्रमाण शास्त्र की व्यवस्थित रुपरेखा यहाँ से प्रारभ होती है।
___ 'अयोगद्वार' 'स्थानाग' और 'भगवतीसूत्र' मे प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान, और आगम इन चार प्रमाणो का निर्देश है । यह परम्परा न्यायसूत्र की है। पर तत्त्वार्थाधिगमभाष्य मे इस परम्परा को 'नयवादान्तरेण' कहकर जैन परम्परा के रूप में स्पष्ट स्वीकार नहीं किया है, और न उत्तरकालीन किसी जैनतर्कग्रथ में इसका कुछ भी विवरण या निर्देश ही है। समस्त उत्तरकालीन जैनदार्शनिको ने अकलकदेव द्वारा प्रतिष्ठापित प्रमाणपद्धति को पल्लवित और पुष्पित करके जैनन्यायाराम को सुवासित किया है।
उपायतत्त्व
उपायतत्त्व में महत्त्वपूर्ण स्थान नय तथा स्याद्वाद का है। नय एक जैन पारिभाषिक शब्द है जो सापेक्ष दृष्टि का नामान्तर है । स्याद्वाद, भाषा का वह निर्दोष प्रकार है जिसके द्वारा वस्तु के परिपूर्ण या यथार्थरूप के अधिक से अधिक समीप पहुंचा जा सकता है। मै पहिले लिख पाया हूँ कि भगवान् महावीर ने वस्तु के अनन्त धमत्मिक विराटप के दर्शन किये और उन्हें उस समय के प्रचलित सभी सद्वाद और असद्वाद या अनिर्वचनीय आदि वाद वस्तु के एक-एक अश को स्पर्श करने वाले प्रतीत हुए। यहां तक तो ठीक था, पर जब महावीर ने उन वादियो को अपने-अपने वाद की सत्यता को चौराहो पर उद्घोषण कर दूसरो का प्रतिक्षेप करते देखा तो उनका तत्त्वद्रष्टा अहिंसक हृदय इस अज्ञान एव हिंसा से अनुकपित हुआ। उन्होने उन सब के लिए वस्तु के विराटस्वरूप का निरूपण किया। कहा, देखो, वस्तु के अनन्तधर्मह, लोगो का ज्ञान स्वल्प है, वह वस्तु के एक प्रश को स्पर्श करता है, अपने दृष्टिकोण को ही सत्य मान कर या अपने ज्ञान पल्वल मे वस्तु के अनन्तरूप को समाया समझकर दूसरे वादी के दृष्टिकोण का प्रतिक्षेप करना मिथ्यात्व है। उसका भी दृष्टिकोण वस्तु के दूसरे अश को स्पर्श करता है। अत अपनी-अपनी दृष्टि में पूर्णसत्य का मिथ्या अहकार करके दूसरो के प्रति असत्यता का आरोप करके उनसे हिसक व्यवहार करना तत्त्वज्ञो का कार्य नही है। उसके स्वरूप का वर्णन करने वाली प्रत्येक दृष्टि नय है और वह अपने में उतनी ही सत्य है जितनी कि उसको विरुद्ध दृष्टि। शर्त यह है कि कोई भी दृष्टि दूसरो दृष्टि का प्रतिक्षेप न करे उसके प्रति सापेक्ष भाव रक्खें।