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प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ जिस प्रकार एक इन्द्रिय एक समय में वस्तु के अनेक धमों का बोध नहीं करा सकती, उसी प्रकार एक शब्द एक समय में वन्तु के अनेक वर्मों का वोव नहीं करा सकता। इसलिए वक्ता किमी एक धर्म का अवलवन लेकर ही वचनव्यवहार करता है। यदि वक्ता एक वर्म के द्वाग पूर्ण वस्तु का बोध कराना चाहता है तो उसका वाक्य 'प्रमाण वाक्य' कहा जाता है। और यदि एक ही धर्म का बोध कराना चाहता है-शेप वर्मों में उसकी दृष्टि उदासीन है तो उमका वाक्य 'नयवाक्य' कहा
प्रमाणवाक्य और नयवाक्य जैसे प्रमाण और नय की व्यवस्था सापेक्ष है, ज्ञाता की दृष्टि पर निर्भर है, उसी तरह प्रमाणवाक्य और नयवाक्य की व्यवस्या भी सापेक्ष है-वक्ता की विवक्षा पर अवलम्वित है । इस अपेक्षावाद को यदि दूर कर दिया जाय तो प्रमाणवाक्य किमी भी हालत में नहीं वन मकता। प्रमाणवाक्य की कल्पना तो दूर की बात है। ययार्थ में प्रमाण का विषय वचन के अगोचर है, अवक्तव्य है। अयवा हम उमे अवक्तव्य भी नहीं कह सकते, क्योकि प्रवक्तव्य भी वस्तु का एक धर्म है। अत यह कहना उचित होगा कि प्रमाण मूक है और उसका विपय स्वसवेद्य है। कैसे ? मुनिए-वस्तु, परस्पर विरोधी कहे जाने वाले अनेक धर्मों का अखड पिंड है जो प्रमाण का विपय है। ममार मे एक भी ऐना शब्द नहीं मिलता, जो उम अनेक धमों के पिंड को, जैसे जान एक समय में एक साथ जान लेता है उम तरह, एक समय में एक माय प्रतिपादन कर सके । 'सत्' शब्द केवल अस्तित्व धर्म का ही प्रतिपादन करता है। 'द्रव्य' शब्द केवल द्रव्य की ओर ही सकेत करताहै,पर्याय की ओर से उदासीन है। इसी लिए मन और द्रव्यमग्रह नय के विपय कहे जाते है। इसी तरह घट पट आदि शब्द भी घटत्व और पटत्व की ओर ही मकेत करते है गेप वमों के प्रति मूक है । इमी से इन्हें व्यवहार नय का विषय कहा जाता है। अधिक क्या कहें-जितना भी शब्द व्यवहार है वह मव नय है । इमी मे निद्धमेन दिवाकर ने नयो के भेद बतलाते हुए कहा है -"जितना वचन व्यवहार है और वह जिम जिस तरह मे हो सकता है वह मव नयवाद है।" श्रुतज्ञान के अतिरिक्त अन्य ज्ञानो का स्वार्थ प्रमाण यानी मूक कहा जाना भी उक्त समस्या पर अच्छा प्रकाग डालता है। वचन व्यवहार, जो नयवाद है, श्रुत प्रमाण में ही होता है। इसी लिए नयो को श्रुत प्रमाण के भेद कहा जाता है।
___आचार्य समन्तभद्र ने प्राप्तमीमामा में केवल नय सप्तभगी का वर्णन किया है। प्रमाण सप्तभगी का वर्णन नहीं किया और अन्त मे लिख दिया--"एकत्व अनेकत्व आदि विकल्पो में भी, नय विशारद को उक्त सप्तभगो की योजना उचित रीति से कर लेनी चाहिए'। इमी तरह मिद्धसेन दिवाकर ने सन्मतितर्क के नयकाण्ड मे नयसप्तभगी का ही वर्णन किया है। स्याद्वाद और मप्नभगीवाद की जो कुछ स्परेखा वर्तमान मे उपलब्ध है उसका श्रेय इन्ही दोनो प्राचार्यों को प्राप्त है । अत उक्त दो महान् प्राचार्यों के द्वारा प्रमाण मतभगी का वर्णन न किया जाना रहस्य से खाली नहीं कहा जा सकता। किन्तु एक वात अवश्य है। दोनो प्राचार्यों के ग्रथो का मूक्ष्म दृष्टि मे अध्ययन करने पर प्रमाण सप्तभगी के वीजभूत वाक्यो का कुछ आभास मा होता है। अकलकदेव सरीखे प्रमाण नय विशारद की दृष्टि में यह विशकलित वाक्याग कैसे छिप सकते थे? हमारा मत है कि उपलब्ध दिगवर जैन साहित्य में प्रमाण मप्तमगी का मर्वप्रथम स्पष्ट निर्देश करने का श्रेय भट्टाकलक को ही प्राप्त है।
"जावइया वयणवहा तावइया चेव होति णयवाया ॥"३-४७ सन्मतितर्क। ३ "एकानेकविफल्पादावुत्तरत्रापि योजयेत् । प्रक्रिया भङ्गिनीमेना नयैर्नयविशारद" ॥२३॥ "तत्त्वज्ञान प्रमाण ते युगपत् सर्वभासनम् । क्रमभावि च यज्नान स्याद्वादनयसस्कृतम्"॥१०१॥ प्राप्तमीमासा नयानामेकनिप्ठाना प्रवृत्ते श्रुतवम॑नि । सम्पूणार्यविनिश्चापि स्याद्वादश्रुतमुच्यते ॥३०॥-न्यायावतार