________________
सर्वज्ञता के इतिहास की एक झलक
प० फूलचन्द्र जैन सिद्धान्तशास्त्री
तीर्थकर सर्वज्ञ हो जाने पर ही मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं, ऐसा नियम है, किन्तु मध्यकाल मे सर्वजत्व के विषय में विवाद चल रहा है । अत मेरी इच्छा इसे समझने की रही है । यद्यपि दर्शन और न्याय के ग्रन्थो मे इसकी विस्तृत चर्चा मिलती है, तथापि इस विषय को समझने का मेरा दृष्टिकोण सर्वथा भिन्न है । मेरी इच्छा रही है कि जैन व अन्य धर्मों में सर्वज्ञता के विषय में प्राचीन काल मे क्या माना जाता रहा है, इसका प्रामाणिक सकलन किया जाय । यह प्रयाम उसीका फल है ।
(१) जैन मान्यता और उसका कारण
जीव अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन श्रादि ग्रनन्त गुणो का पिंड है। इसके ससारी और मुक्त ये दो भेद है । जो जन्म-मरण की बाधा ने पीडित है वह ससारी श्रीर जिसके यह बाबा दूर हो गई है वह मुक्त है। मुक्त अवस्था में जीव की सब स्वाभाविक शक्तियाँ प्रकट हो जाती है, जो कि ममार-प्रवस्था मे कर्मों के कारण घातित रहती है । जीव के और मव गुणी में ज्ञान मुख्य है । इसके पांच भेद है -- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, श्रवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान और केवलज्ञान । यद्यपि प्रत्येक ग्रात्मा में एक ही ज्ञान' है जिसे कि 'केवलज्ञान' कहते हैं, किन्तु आवरण करने वाले कर्मों के भेद से उसके पांच भेद हो गये है । बात यह है कि श्रात्मा के मूल ज्ञान को केवलज्ञानावरण कर्म रोके हुए हैं। तो भी कुछ ऐसे प्रतिमन्द ज्ञानाश शेष रह जाते हैं जिन्हे केवलज्ञानावरण कर्म प्रकट होने से नही रोक सकता । मतिजनावरण आदि कर्म इन्ही ज्ञानागो को श्रावृत करते है और इसलिए ज्ञान के पाँच भेद हो जाते हैं ।
अन्य प्रकार में ज्ञान के दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । जिम ज्ञान की प्रवृत्ति में आत्मा स्वय कारण है, उसे अन्य किमी बाह्य साधन की सहायता नही लेनी पडती उमे प्रत्यक्ष कहते हैं तथा जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता मे उत्पन होता है, उसे परोक्ष कहते हैं । यद्यपि ज्ञान मे स्वत जानने की शक्ति है, इसलिए मुख्य ज्ञान प्रत्यक्ष ही है, किन्तु ससारी अवस्था में श्रावरण के कारण यह शक्ति पगु बनी रहती है । अत ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद हो जाते हैं ।
परोक्षज्ञान के दो भेद है मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । मतिज्ञान का दूसरा नाम श्राभिनिवोधिकज्ञान भी है । जो श्रभिमुख और नियमित पदार्थों को जानता है उसे मतिज्ञान या श्राभिनिवोधिकज्ञान कहते है । जो पदार्थ इन्द्रिय और मन से ग्रहण करने योग्य हो वह श्रभिमुख अर्थ कहलाता है । यह ज्ञान नियम से ऐसे हो अर्य को ग्रहण करता है । त इमे ग्राभिनिवोधिकज्ञान कहते हैं । सज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता ये चारो ग्राभिनिवोधिकज्ञान के पर्याय नाम है । ग्रामो मे इम ज्ञान के लिए 'अभि'निवोधिक' नाम मुख्य रूप से आया है । यद्यपि 'मति' इसका पर्याय - वाची है, फिर भी इस शब्द का मुख्य रूप से उपयोग पीछे से हुआ जान पडता है । सबसे पहले हम 'मतिज्ञान' शब्द का उपयोग श्राचार्य कुन्दकुन्द के 'नियमसार" मे देसते है । तत्त्वार्थसूत्र मे भी इसी शब्द का मुख्य रूप से उपयोग
१ जीवो केवलणाणसहावो चेव । धवला श्रारा पत्र ८६६
' णाणावरणीयस्स कम्मस्स पच पयडीओ आभिणिवोहियणाणावरणीय -- | धवला आरा पत्र ८६५ ।
३ सण्णाण चउभेय मदिसुदश्रोही XX | गाथा १२
मतिश्रुतावधि - XX। सूत्र ε
४