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जैन - मान्यता में धर्म का आदि समय और उसकी मर्यादा
पं० वशीधर व्याकरणाचार्य
प्राय धर्म को सभी मान्यताओ मे अमर्यादित काल को मर्यादित अनन्त कल्पो के रूप मे विभक्त किया गया है, लेकिन किन्ही- किन्ही मान्यताओ में जहाँ इम दृष्यमान् जगत् की अस्तित्त्व स्वरूप सृष्टि और प्रभाव स्वरूप प्रलय को श्राधार मान कर एक कल्प की सीमा निर्धारित की गई हैं, वहाँ जैन मान्यता मे प्राणियो के दुख के साधनो की क्रमिक हानि होते-होते मुख के साघनो की क्रमिक वृद्धिस्वरूप उत्सर्पण और प्राणियो के सुख के साधनो की क्रमिक हानि होतेहोते दुख के साधनो की क्रमिक वृद्धिस्वरूप श्रवसर्पण को श्राधार मान कर एक कल्प की सीमा निर्धारित की गई है।
तात्पर्य यह कि धर्म की किन्ही- किन्ही जैनेतर मान्यताओ के अनुसार उनके माने हुए कारणो द्वारा पहिले तो यह जगत् उत्पन्न होता है और पश्चात् यह विनष्ट हो जाता है । उत्पत्ति के अनन्तर जव तक जगत् का सद्भाव बना रहता है उतने काल का नाम सृष्टिकाल और विनष्ट हो जाने पर जब तक उसका प्रभाव बना रहता है उतने काल का नाम प्रलयकाल माना गया है । इस तरह से एक सृष्टिकाल और उसके अनन्तर होने वाले एक प्रलयकाल को मिलाकर इन मान्यताओ के अनुसार एक कल्पकाल हो जाता है । जैन मान्यता में इन मान्यताओ की तरह जगत् का उत्पाद और विनाश नही स्वीकार किया गया है। जैन मान्यता में जगत् तो श्रनादि श्रर अनिधन है, परन्तु रात्रि के वारह बजे से अन्यकार का क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते दिन के वारह बजे तक प्रकाश की क्रमपूर्वक होने वाली वृद्धि के समान जैन मान्यता मे जितना' काल जगत् के प्राणियो के दुख के साधनो का क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते सुख के साधनो की क्रमपूर्वक होने वाली वृद्धिस्वरूप उत्सर्पण का बतलाया गया है उतने काल का नाम उत्सर्पिणी काल और दिन के वारह बजे से प्रकाश का क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते रात्रि के वारह बजे तक अन्धकार की क्रमपूर्वक होने वाली वृद्धि के समान वहाँ पर (जैन मान्यता मे ) जितना काल' जगत् के प्राणियो के सुख के साधनो का क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते दु ख के मानो की क्रमपूर्वक होने वाली वृद्धिस्वरूप अवसर्पण का वतलाया गया है उतने काल का नाम अवसर्पिणी काल स्वीकार किया गया है । एक उत्सर्पिणी काल और उसके अनन्तर होने वाले एक अवसर्पिणी काल को मिला कर जैन मान्यता का एक कल्पकाल हो जाता है।' चूकि उक्त दूसरी मान्यताओ में सृष्टिकाल और प्रलयकाल की परपरा को पूर्वोक्त सृष्टि के बाद प्रलय और प्रलय के वाद सृष्टि के रूप में तथा जैन मान्यता में उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल की परपरा को पूर्वोक्त उत्सर्पण के वाद श्रवसर्पण और श्रवसर्पण के वाद उत्सर्पण के रूप में अनादि श्रोर अनन्त
१ यह फाल जैन ग्रन्थों के आधार पर दश कोटीकोटी सागरोपम समय प्रमाण है। कोटी (करोड) को कोटी (फरोड) से गुणा कर देने पर फोटो कोटी का प्रमाण निकलता है और सागरोपम जैनमान्यता के असंख्यात वर्ष प्रमाण काल विशेष की सज्ञा है ।
" यह फाल भी जैन ग्रन्थों में दश कोटीकोटी सागरोपम समय प्रमाण हो बतलाया गया है ।
* काल का वर्णन करते हुए आदि पुराण में लिखा है
उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो दो भेदी तस्य फोर्तिती ।
उत्सर्पादवसर्पाच्च बलायुर्देहवर्मणाम् ॥१४॥ कोटीकोटी दर्शकस्य प्रमासागरसख्यया ।
शेषस्याप्येवमेवेष्टा तावुभौ फल्प इष्यते ॥ १५॥ ( आदि पुराण पर्व ३)