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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ हुआ है। कुछ विद्वानो का मत है कि साव्यवहारिक प्रत्यक्ष और मतिज्ञान एक है, परन्तु उपर्युक्त लक्षण को देखते हुए उनका यह मत असमीचीन प्रतीत होता है। वास्तव मे साव्यवहारिक प्रत्यक्ष मतिज्ञान का भेद है। मतिज्ञान के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ के निमित्त से जो अन्य पदार्थ का ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। जैसे, धूम को देख कर जो अग्नि का ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। यह ज्ञान नियम से मतिज्ञान पूर्वक ही होता है। इन्द्रियाँ वर्तमान अर्थ को ही ग्रहण करती है, किन्तु मन त्रैकालिक पदार्थों को ग्रहण करता है।
प्रत्यक्ष के तीन भेद है-अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान और केवलज्ञान । जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिये हुए विना किसी की सहायता के केवल मूर्तिक पदार्थों को जानता है, उमे अवधिज्ञान कहते है। इसके दो भेद है भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । जो जन्म लेते ही प्रकट हो जाता है, वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है और जो व्रत नियम आदि के निमित्त से होता है उसे गुणप्रत्यय अवधिज्ञान कहते है। पहले जो परोक्ष ज्ञान के दो भेद बतलाये गये है, वे सब ससारी जीवो के होते है, किन्तु यह ज्ञान सज्ञी पचेन्द्रियो मे से कुछ के ही सम्भव है। जो दूमरे के मनोगत अर्थ को जानता है उसे मन पर्ययज्ञान कहते है। यह ज्ञान सयमी जीवो के ही हो सकता है, अन्य के नहीं। तथा जो ज्ञान त्रिकालवर्ती सव पदार्थों को जानता है, उसे केवलज्ञान कहते है। यह ज्ञान करण, क्रम और व्यवधान से रहित है। जव यह प्रात्मा ज्ञान का आवरण करने वाले कर्मों का सर्वथा क्षय कर देता है तव इस ज्ञान की उत्पत्ति होती है। इस अवस्था के प्राप्त हो जाने पर जीव सर्वज्ञ, अरहन्त, सयोगिकेवली, जिन और भगवान आदि अनेक नामो से पुकारा जाता है । जैन-मतानुसार इस अवस्था के बाद ही जीव मोक्ष मार्ग के उपदेश का अधिकारी होता है । प्रकृति अनुयोगद्वार में लिखा है
सइ भयवं उप्पण्णणाणदरिसी सदेवासुरमाणुस्सलोगस्स आदि गदि चयणोववाद बधमोक्ख इद्धि दिदि जुदि अणुभाग तक्क कल मण माणसिय भुत्त कद पडिसेविद आदिकम्म अरहकम्म सव्वलोए सव्वजीवे सब्वभावे सम्म सम जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति।
__ अर्थात्-"केवलज्ञान और केवलदर्शन के प्राप्त होने पर जिनदेव देवलोक, मनुष्यलोक और असुरलोक की गति और आगति का तथा चयन, उपपाद, वन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग, तर्क, कल, मन, मानसिक, भूक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदि कर्म, अर्हकर्म, सब लोक, सव जीव और सब भाव इनको भले प्रकार एक साथ स्वय जानते और देखते हुए विहार करते है।"
स्थानागसूत्र के स्थान २ उद्देश्य १ में भी लिखा है
'त समासो चउन्विह पण्णत । त जहा-दव्वनो खेत्तो कालो भावनो। तत्थ दव्वनो ण केवलणाणी सव्वदम्वाइ जाणइ पासइ । खित्तो ण केवलणाणी सव्व खेत्त जाणइ पासइ । कालो ण केवलणाणी सव्व काल जाणइ पासइ । भावनो ण केवलणाणी सब्चे भावे जाणइ पासइ।'
___ अर्थात्-"केवलज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा सक्षेप से चार प्रकार का है। सो द्रव्य की अपेक्षा केवलज्ञानी सव द्रव्यो को जानता और देखता है। क्षेत्र की अपेक्षा केवलज्ञानी सव क्षेत्रो को जानता और देखता है। काल की अपेक्षा केवलज्ञानी सव कालो को जानता और देखता है तथा भाव की अपेक्षा केवलज्ञानी सव भावो को जानता और देखता है।"
__यहाँ तक हमने ज्ञान, ज्ञान के भेद, उनका स्वरूप व स्वामी इन सबके विषय में जैन मान्यता क्या है, इसका सक्षेप में सप्रमाण विचार किया। अब इस बात का विचार करते है कि जैन-परम्परा में केवलज्ञानी को सव पदार्थों का जानने और देखने वाला क्यो माना गया है ? इसके लिए हमे विविध धर्मों और दर्शनो मे आत्मा के स्वरूप के विषय मे क्या लिखा है और उससे जैनधर्म की मान्यता का कहाँ तक मेल बैठता है, इसका विचार कर लेना आवश्यक है।