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जैन दर्शन का इतिहास और विकास यह नयदृष्टि विचार का निर्दोषप्रकार है तथा स्याद्वाद भाषा की समता का प्रतीक है । स्याद्वाद मे 'स्यात्' शब्द एक 'निश्चितदृष्टिकोण' का प्रतिपादन करता है अर्थात् अमुक निश्चित दृष्टिकोण से वस्तु सत् है अमुक निश्चित दृष्टिकोण से असत् । स्यात् को शायद का पर्यायवाची कहकर उमे ढुलमुल यकीनी की कक्षा मे डालना उसके ठीक स्वरूप के अज्ञान का फल है । मालूम होता है शकराचार्य जी ने भी स्यात् और शायद को पर्यायवाची समझकर उसमें समय दूपण देने का विफल प्रयास किया है। भगवतीसूत्र मे हम “सिय अत्थि, सिय णत्थि, सिय अवत्तव्व' इन तीन भगो का निर्देश पाते है। अर्थात् वस्तुएक दृष्टिकोण से सत् है, दूसरे दृष्टिकोण से असत् तथा तीसरे दृष्टिकोण से अवक्तव्य। वस्तुत मनुष्य एक विराट् अखड अनन्त वस्तु को पहिले सद्रूप से वर्णन करने का प्रयत्न करता है और देखता है कि उसकी दूसरी बाजू अभी वर्णन में नही आई तब उसका असद्रूप से विवेचन करता है। पर जब वह देखता है कि सद् और असत् जैसे अनन्त विरोधी धर्मों की लहरे वस्तु के असीम समुद्र में लहरा रही है जिन्हें एक साथ वर्णन करना वचनो की शक्ति के वाहर है तो वह कह उठता है 'यतो वाचो निवर्तन्ते'। इस तरह वस्तु का परिपूर्णरुप अवक्तव्य है, उसका एक-एक रूप से आशिक वर्णन होता है । जैनदर्शन मे प्रवक्तव्य को भी एक दृष्टि माना है, जिस प्रकार वक्तव्य को।
प्रा० कुन्दकुन्द के पचास्तिकाय में सर्वप्रथम सत् अमत् प्रवक्तव्य के सयोग से बनने वाले सात भगो का उल्लेख है। इसे सप्तभगीनय कहते है। स्वामी समन्तभद्र की प्राप्तमीमासा मे इसी सप्तभगी का अनेक दृष्टियो से विवेचन है । उसमें सत् असत्, एक अनेक, नित्य अनित्य, द्वैत अद्वैत, देव पुरुपार्थ आदि अनेक दृष्टिकोणो का जनदृष्टि से सुन्दर समन्वय किया है। सिद्धसेन के सन्मतितर्क मे अनेकान्त और नय का विशद वर्णन है। इन युगप्रधान आचार्यों ने उपलब्ध समस्त जनेतर दृष्टियो का नय या स्याद्वाद दृष्टि से वस्तुस्पर्शी समन्वय किया। देव और पुरुपार्थ का जो विवाद उस समय दृढमूल था, उसके विषय में स्वामी समन्तभद्र ने प्राप्तमीमासा (७वा परिच्छेद) में हृदयग्राही सापेक्ष विवेचन किया है। उन्होने लिखा है कि कोई भी कार्य न केवल देव से होता है और न केवल पुरुषार्थ से। दोनो रस्सियो से दधिमथन होता है। हाँ, जहां वुद्धिपूर्वक प्रयत्न के अभाव मे फलप्राप्ति हो, वहाँ देव को प्रधान मानना चाहिए तथा पुरुषार्थ को गौण तथा जहां बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से कार्यमिद्धि हो वहाँ पुरुपार्थ प्रधान तथा देव गौण। किसी एक का निराकरण नही किया जा सकता इन मे गौण मुख्यभाव है। इस तरह सिद्धमेन और समन्तभद्र के युग में नय, सप्तभगी, अनेकान्त आदि जैनदर्शन के आधारभूत पदार्थों का सागोपाग विवेचन हुआ। इन्होने उस समय के प्रचलित सभी वादो का नय दृष्टि से जैन दर्शन में ममन्वय किया। और सभी वादियो में परस्पर विचार महिष्णुता और समता लाने का प्रयत्न किया। इसी युग मे न्यायभाष्य, योगभाष्य, शावरभाष्य आदि भाष्य रचे गए है । यह युग भारतीय तर्कशास्त्र के विकास का प्रारभयुग था। इसमें सभी दर्शन अपनी अपनी तैयारियां कर रहे थे। अपने अपने तर्कशास्त्र रूपी शस्त्र पैना कर रहे थे। सवसे पहिला आक्रमण बौद्धो की भोर मे हुआ जिसमें मुख्य सेनापति का कार्य प्राचार्य दिडनाग ने किया। इसी समय वैदिक दार्शनिक परम्परा मे न्यायवार्तिककार उद्योतकर, मीमासाश्लोकवार्तिककार कुमारिलभट्ट आदि हुए। इन्होने वैदिकदर्शन के सरक्षण मे पर्याप्त प्रयत्न किया। इसके बाद (वि० ६वी सदी) पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि तथा मल्लवादि ने नयचक्र नामक महान् आकर अथ बनाए। नयचक्र में नय के विविधभगो द्वारा जनेतर दृष्टियो के समन्वय का सफल प्रयत्न हुआ। यह अथ आज मूलरूप मे उपलब्ध नहीं है। इसकी सिंहगणि क्षमाश्रमण की टीका मिलती है। इसी युग मे सुमति, श्रीदत्त, पात्रस्वामि आदि आचार्यों ने जैनन्याय के विविध अगो में स्वतन्त्र तथा व्याख्यारूप ग्रथो का निर्माण किया।
वि० ७वी ८वी सदी दर्शनशास्त्र के इतिहास में विप्लव का युग था। इस समय नालन्दा विश्वविद्यालय के आचार्य धर्मपाल के शिष्य धर्मकीति का मपरिवार उदय हुआ। शास्त्रार्थों की धूम थी। धर्मकीर्ति तथा उनकी शिष्यमडली ने प्रवल तर्कवल से वैदिक दर्शनो पर प्रचड प्रहार किए। जैनदर्शन पर भी आक्षेप किए जाते थे। यद्यपि अनेक मुद्दो मे जनदर्शन और बौद्धदर्शन समानतन्त्रीय थे पर क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, शून्यवाद, विज्ञानवाद आदि