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प्रेमी-अभिनंदन - प्रथ
अभयदेव
अभयदेव ने सम्मतिटीका में अनेकान्तवाद का विस्तार और विशदीकरण किया है क्योकि यही विषय मूल सम्मति मे है । उन्होने प्रत्येक विषय को लेकर लम्बे-लम्बे वादविवादो की योजना करके तत्कालीन दार्शनिक सभी वादो का संग्रह विस्तारपूर्वक किया है। योजना मे क्रम यह रक्खा है कि सर्वप्रथम निर्बलतम पक्ष उपस्थित करके उसके प्रतिवाद में उत्तरोत्तर ऐसे पक्षो को स्थान दिया है, जो क्रमश निर्वलतर, निर्बल, सवल और सवलतर हो । अन्त में सवलतम अनेकान्तवाद के पक्ष को उपस्थित करके उन्होने उम वाद का स्पष्ट ही श्रेष्ठत्व सिद्ध किया है । सन्मतिटीका को तत्कालीन सभी दार्शनिक ग्रन्थो के दोहनरूप कहें तो उचित ही है । अनेकान्तवाद के अतिरिक्त तत्कालीन प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता और फलविषयक प्रमाणशास्त्र की चर्चा को भी उन्होने उक्त क्रम से ही रख कर जैनदृष्टि से होनेवाले प्रमाणादि के विवेचन को उत्कृप्ट सिद्ध किया है । इस प्रकार इस युग की प्रमाणशास्त्र की प्रतिष्ठा मे भी उन्होने अपना हिस्सा अदा किया है।
अभयदेव का समय वि० १०५४ मे पूर्व ही सिद्ध होता है क्योकि उनका शिष्य श्राचार्य धनेश्वर मुज की सभा मे मान्य था और इसीके कारण धनेश्वर का गच्छ राजगच्छ कहलाया है । मुज की मृत्यु वि० १०५४ के आमपास हुई है ।
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प्रभाचन्द्र
किन्तु इस युग का प्रमाणशास्त्र का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रमेयकमलमातंड ही है इसमें तो मन्देह नही । इसके कर्ता प्रतिभासम्पन्न दार्शनिक प्रभाचन्द्र है । प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र की रचना लघीयस्त्रय की टीकास्प से की है उसमे भी मुख्यरूप से प्रमाणशास्त्र की चर्चा हैं । परीक्षामुखग्रन्थ जिसकी टीका प्रमेयकमलमार्तंड है, लघीयम्नय, न्यायविनिश्चय आदि अकलक की कृतियो का व्यवस्थित दोहन करके लिखा गया है। उसमे अकलकोक्त विप्रकीर्ण प्रमाणशास्त्रसम्बद्ध विषयो को क्रमवद्ध किया गया है। अतएव इसकी टीका में भी व्यवस्था का होना स्वाभाविक है । न्यायकुमुदचन्द्र में यद्यपि प्रमाण शास्त्रसम्बद्ध सभी विषयो की सम्पूर्ण और विस्तृत चर्चा का यत्रतत्र समावेश प्रभाचन्द्र ने किया है और नाम से भी उन्होने इसे ही न्यायशास्त्र का मुख्यग्रन्थ होना सूचित किया है, फिर भी प्रमाणशास्त्र की दृष्टि से क्रमवद्ध विषयपरिज्ञान प्रमेयकमलमार्तड से ही हो सकता है, न्यायकुमुदचन्द्र से नहीं । अनेकान्तवाद का भी विवेचन पद-पद पर इन दोनो ग्रन्थो मे हुआ है ।
शाकटायन के स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिप्रकरण के आधार से अभयदेव ने स्त्रीमोक्ष और केवलिकवलाहार सिद्ध करके श्वेताम्वरपक्ष को पुष्ट किया और प्रभाचन्द्र ने शाकटायन की प्रत्येक दलील का खडन करके केवलिकवलाहार और स्त्रीमोक्ष का निषेध करके दिगम्बर पक्ष को पुष्ट किया । इस युग के अन्य श्वेताम्वरदिगम्वराचार्यो ने भी इन विषयो की चर्चा अपने ग्रन्थो में की है ।
प्रभाचन्द्र मुज के बाद होनेवाले धाराधीश भोज और जयसिंह का समकालीन है क्योकि अपने ग्रन्थो की प्रशस्तियो मे वह इन दोनो राजाओ का उल्लेख करता है । प० महेन्द्र कुमारजी ने प्रभाचन्द्र का समय वि० १०३७ से ११२२ अनुमानित किया है ।
वादिराज
वादिराज और प्रभाचन्द्र समकालीन विद्वान है । सम्भव है वादिराज कुछ बडे हो । वादिराज ने अकलक के न्यायविनिश्चय का विवरण किया है । किसी भी वाद की चर्चा मे कजूसी करना वादिराज का काम नही । सैकडो ग्रन्थो के उद्धरण देकर वादिराज ने अपने ग्रन्थ को पुष्ट किया है । न्यायविनिश्चय मूल ग्रन्थ भी प्रमाणशास्त्र का