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प्रेमी-अभिनंदन - प्रथ
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प्रवेश के लिए यह अतीव उपयुक्त ग्रन्थ है । दुर्भाग्यवश यह ग्रन्थ प्रपूर्ण ही उपलब्ध होता है । आचार्य हेमचन्द्र ने समन्तभद्र के युक्त्यनुशासन का अनुकरण करके अयोगव्यवच्छेदिका और श्रन्ययोगव्यवच्छेदिका नामक दो दार्शनिक द्वात्रिंशिकाएँ रची। उनमें से गन्ययोगव्यवच्छेदिका की टीका मल्लिषेणकृत स्याद्वादमजरी अपनी प्रसन्न गम्भीर शैली के कारण तथा सर्वदर्शनसारसग्रह के कारण प्रसिद्ध है ।
शान्त्याचार्य
इस युग में हेमचन्द्र के समकालीन और उत्तरकालीन कई श्राचार्यों ने प्रमाणशास्त्र के विषय में लिखा है उसमे शान्त्याचार्य जो १२वी शताब्दी मे हुए अपना खास स्थान रखते है । उन्होने न्यायावतार का वार्तिक स्वोपज्ञ टीका के साथ रचा। और अकलक स्थापित प्रमाणभेदो का खडन करके न्यायावतार की परम्परा को फिर से स्थापित किया ।
रत्नप्रभ
देवसूरि के ही शिष्य और स्याद्वादरत्नाकर के लेखन में सहायक रत्नप्रभरि ने स्याद्वादरत्नाकर मे प्रवेश सुगमता की दृष्टि से अवतारिका बनाई । उसमे सक्षेप से दार्शनिक गहनवादो की चर्चा की गई है । इस दृष्टि से अवतारका नाम सफल है, किन्तु भाषा की आडम्बरपूर्णता ने उमे रत्नाकर से भी कठिन बना दिया है। फिर भी वह अभ्यासियो के लिए काफी आकर्षण की वस्तु रही है। इसका अन्दाजा उसको टोकोपटीका की रचना मे लगाना सहज है । इसी रत्नाकरावतारिका के बन जाने मे श्वेताम्बराम्नाय से म्याद्वादरत्नाकर का पठन-पाठन बन्द हो गया । फलत आज स्याद्वादरत्नाकर जैसे महत्त्वपूर्ण गन्य की सम्पूर्ण एक भी प्रति प्रयत्न करने पर भी अभी तक उपलब्ध नही हो सकी है ।
सिंह - व्याघ्र शिशु
वादीदेव के ही समकालीन आनन्दसूरि और श्रमरसूरि हुए जो अपनी वाल्यावस्था से ही वाद में प्रवीण थे और उन्होने कई वादियो को बाद में पराजित किया था । इसीके कारण दोनो को सिद्धराज ने क्रमश 'व्याघ्रणिशुक' और 'सिंहशिशुक' की उपाधि दी थी । इनका कोई ग्रन्थ अभी उपलब्ध नही यद्यपि श्रमरचन्द्र का सिद्धान्तार्णव ग्रन्थ था। सतीशचन्द्र विद्याभूषण का अनुमान है कि गगेश ने सिंह-व्याघ्र व्याप्तिलक्षण नामकरण में इन्ही दोनो का उल्लेख किया हो, यह सम्भव है ।
रामचन्द्र आदि
आचार्य हेमचन्द्र के विद्वान शिष्यमडल मे से रामचन्द्र - गुणचन्द्र ने सयुक्तभाव से द्रव्यालकार नामक दार्शनिक कृति का निर्माण किया है, जो अभी अप्रकाशित है ।
स० १२०७ मे उत्पादादिसिद्धि की रचना श्री चन्द्रसेन प्राचार्य ने की। इसमे वस्तु का उत्पादव्यय धौव्यरूप त्रिलक्षण का समर्थन कर अनेकान्तवाद की स्थापना की गई है ।
१४ वी शताब्दी के आरम्भ मे अभयतिलक ने न्यायालकार टिप्पण लिख कर हरिभद्र के समान उदारता का परिचय दिया । यह टिप्पण न्यायसूत्र की क्रमिक पाँचो टीका भाष्य, वार्तिक, तात्पर्य, परिशुद्धि और श्रीककृत न्यायालकार का टिप्पण है ।
सोमतिलक की षड्दर्शन समुच्चय टीका वि० १३८६ मे वनी । किन्तु पन्द्रहवी शताब्दी मे होने वाले गुणरत्न ने जो षड्दर्शन की टीका लिखी वही उपादेय बनी है । इसी शताब्दी में मेरुतुग ने भी पड्दर्शन निर्णय नामक ग्रन्थ लिखा । राजशेखर जो पन्द्रहवी के प्रारम्भ में हुए उन्होने षड्दर्शनसमुच्चय, स्याद्वादकलिका, रत्नाकरावतारिका पजिका इत्यादि ग्रन्थ लिखे । और ज्ञानचन्द्र ने रत्नाकरावतारिका पजिकाटिप्पण लिखा ।