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जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन
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तर्क की मर्यादा का पूरा ज्ञान उनको था । इमीलिए तो उन्होने स्पष्ट कह दिया है कि श्रहेतुवाद के क्षेत्र में तर्क को दखल न देना चाहिए। श्रागमिक बातो मे केवल श्रद्धागम्य वातो में श्रद्धा से ही काम लेना चाहिए श्रीर जो तर्क का विषय हो उमी मे तर्क करना चाहिए ।
दूसरे दार्शनिको की त्रुटि दिखा कर ही सिद्धमेन मन्तुष्ट न हुए। उन्होने अपना घर भी ठीक किया । जैनो की उन श्रागमिक मान्यताओं के ऊपर भी उन्होने प्रहार किया है, जिनको उन्होने तर्क से प्रसगत समझा । जैसे सर्वज्ञ के ज्ञान और दर्शन को भिन्न मानने की प्रागमिक परम्परा थी, उनके स्थान में उन्होने दोनो के अभेद की नई परम्परा कायम की । तर्क के वल पर उन्होंने मति श्रोर श्रुत के भेद को भी मिटाया । अवधि श्रौर मन पर्यय ज्ञान को एक बताया तथा दर्शन - श्रद्वा श्रीर ज्ञान का भी ऐक्य सिद्ध किया । जैन श्रागमो में नैगमादि सात नय प्रसिद्ध थे । उसके स्थान में उन्होने उनमे से नैगम का समावेश सग्रह-व्यवहार में कर दिया और मूल नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक मान कर उन्ही दो के अवान्तर भेद रूप से छ नयो की व्यवस्था कर दी । श्रवान्तर भेदो की व्यवस्था में भी उन्होने अपना स्वातन्त्र्य दिखाया है । इतना ही नही किन्तु उस समय के प्रमुख जैनसघ को युगधर्म की भी शिक्षा उन्होने यह कह कर दी है कि मिर्फ सूत्रपाठ याद करके तथा उस पर चिन्तन और मनन न करके मात्र वाह्य श्रनुष्ठान के वल पर अव शामन की रक्षा होना कठिन है। नयवाद के विषय में गम्भीर चिन्तन-मनन करके अनुष्ठान किया जाय तव ही ज्ञान का फल विरति और मोक्ष मिल सकता है । और इम प्रकार शासनरक्षा भी हो सकती है ।
मिन की कृतियो में सन्मतितर्क, वत्तीमीयाँ और न्यायावतार है । सम्मतितर्क प्राकृत मे श्रीर शेष संस्कृत
में है ।
सिद्धमेन के विषय मे कुछ विस्तार अवश्य हो गया है, किन्तु वह आवश्यक है, क्योकि अनेकान्तवादरूपी महाप्रामाद के निर्माता प्रारम्भिक शिल्पियो में उनका स्थान महत्त्वपूर्ण है ।
सिद्धसेन के समकक्ष विद्वान् समन्तभद्र है । उनको स्याद्वाद का प्रतिष्ठापक कहना चाहिए। अपने समय में प्रसिद्ध सभी वादो की ऐकान्तिकता मे दोप दिखा कर उन सभी का समन्वय अनेकान्तवाद में किस प्रकार होता है, यह उन्होने खूबी के माथ विस्तार से बताया है। उन्होने स्वयभूस्तोत्र मे चौविसो तीर्थकरो की स्तुति की है । वह स्तुति स्तोत्र साहित्य में श्रनोग्वा स्थान रखती है । वह प्रालकारिक एक स्तुतिकाव्य तो है ही, किन्तु उसकी विशेषता उसमे मन्निहित दार्शनिक तत्त्व में हैं । प्रत्येक तीर्थंकर की स्तुति मे किसी न किसी दार्शनिकवाद का श्राकारिक निर्देश अवश्य किया है । युक्त्यनुशासन भी एक स्तुति के रूप मे दार्शनिक कृति है । प्रचलित सभी वादो में दोप दिखा कर यह सिद्ध किया गया है कि भगवान् के उपदेशो मे उन दोपो का प्रभाव है । इतना ही नही, किन्तु भगवान् के उपदेश में जो गुण है उन गुणो का सद्भाव अन्य किसी के उपदेश में नही । तथापि उनकी श्रेष्ठ कृति तो श्राप्नमीमासा ही है ।
हम त की ही स्तुति क्यो करते हैं और दूसरो की क्यो नही करते ? इस प्रश्न को लेकर उन्होने प्राप्त की मीमांसा की है। प्राप्त कौन हो सकता है इस प्रश्न के उत्तर में उन्होने सर्वप्रथम तो महत्ता की सच्ची कसोटी क्या हो सकती है, इसका विचार किया है । जो लोग वाह्य आडम्वर या ऋद्धि देख कर किसी को महान् समझ कर अपना प्राप्त या पूज्य मान लेते है उन्हें शिक्षा देने के लिए उन्होने अरिहन्त को सम्बोधन करके कहा है—
देवागमनभोयानचामरादिविभूतय ।
मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥
देवो का ग्रागमन, नभोयान और चामरादि विभूतियाँ तो मायावि पुरुपो में भी दिखाई देती है । अतएव इतने मात्र मे तुम हमारे लिए महान नही हो । फलितार्थ यह है कि श्रद्धाशील लोगो के लिए तो ये बातें महत्ता की कसौटी हो सकती है, किन्तु तार्किको के सामने यह कसौटी चल नहीं सकती। इसी प्रकार शारीरिक महोदय भी