________________
प्रेमी - अभिनंदन ग्रंथ
(३) प्रमाणशास्त्र व्यवस्थायुग
हरिभद्र और अकलक
असग-वसुबन्धु ने विज्ञानवाद की स्थापना की थी, किन्तु स्वतन्त्र वौद्ध दृष्टि से प्रमाणशास्त्र की रचना व स्थापना का कार्य तो दिग्नाग ने ही किया । अतएव वह वौद्ध तर्कशास्त्र का पिता माना जाता है । उन्होने तत्कालीन नैयायिक, वैशेषिक, साख्य, मीमासक आदि दर्शनों के प्रमेयो का तो खडन किया ही किन्तु साथ ही उनके प्रमाणलक्षणो का भी खडन किया । इसके उत्तर मे प्रशस्त उद्द्योतकर, कुमारिल, सिद्वमेन, मल्लवादी, सिंहगणी, पूज्यपाद, समन्तभद्र, ईश्वरसेन, अविद्धकर्ण आदि ने अपने अपने दर्शन और प्रमाणशास्त्र का समर्थन किया । तव दिग्नाग के टीकाकार और भारतीय दार्शनिको में सूर्य के समान तेजस्वी ऐसे धर्मकीर्ति का पदार्पण हुआ । उन्होने उन पूर्वोक्त सभी दार्शनिको को उत्तर दिया और दिग्नाग के दर्शन की रक्षा की और नये प्रकाश में उसका परिष्कार भी किया । इस तरह बौद्ध दर्शन और खास कर वोद्वप्रमाणशास्त्र की भूमिका पक्की कर दी। इसके वाद एक पोर तो धर्मकीर्ति की शिष्यपरम्परा के दार्शनिक धर्मोत्तर, अर्चंट, शान्तरक्षित, पज्ञाकर आदि हुए जिन्होने उत्तरोत्तर धर्मकीर्ति के पक्ष की रक्षा की और इस प्रकार बौद्ध प्रमाणशास्त्र को स्थिर किया । और दूसरी ओर प्रभाकर, उम्वेक, व्योमशिव, भाविविक्त, जयन्त, सुमति, पात्रस्वामी, मडन आदि वौद्धेतर दार्शनिक हुए, जिन्होने वौद्ध पक्ष का सडन किया और अपने दर्शन की रक्षा की।
३१४
चार शताब्दी तक चलने वाले इस सघर्ष के फल स्वरूप आठवी-नवी शताब्दी में जैनदार्शनिको में हरिभद्र और अकलक हुए। हरिभद्र ने अनेकान्तजयपताका के द्वारा बौद्ध और इतर सभी दार्शनिको के प्राक्षेपो का उत्तर दिया और उस दीर्घकालीन सघर्ष के मन्धन में से अनेकान्तवादरूप नवनीत सभी के सामने रक्खा, किन्तु इस युग का अपूर्व फल तो प्रमाणशास्त्र ही है और उसे तो अकलक की ही देन समझना चाहिए। दिग्नाग मे लेकर वौद्ध और वौद्धेतर प्रमाणशास्त्र मे जो सघर्ष चला उसके फलस्वरूप अकलक ने स्वतन्त्र जैन दृष्टि से अपने पूर्वाचार्यो की परम्परा को ख्याल में रख कर जैन प्रमाणशास्त्र का व्यवस्थित निर्माण और स्थापन किया। उनके प्रमाणसग्रह न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय आदि जन्य इसके ज्वलन्त उदाहरण है । अकलक के पहले न्यायावतार और त्रिलक्षणकदर्थन न्यायशास्त्र के ग्रन्थ थे । हरिभद्र की तरह उन्होने भी अनेकान्तवाद का समर्थन विपक्षियो को उत्तर दे करके आप्तमीमासा की टीका अष्टशती मे तथा सिद्धिविनिश्चय में किया है । और नयचक्र की तरह यह भी अनेक प्रस में दिखाने का यत्न किया है कि दूसरे दार्शनिक भी प्रच्छन्नरूप मे अनेकान्तवाद को मानते ही है ।
हरिभद्र ने स्वतन्त्ररूप से प्रमाणशास्त्र की रचना नही की किन्तु दिग्नागकृत ( ? ) न्यायप्रवेश की टीका करके उन्होने यह सूचित तो किया ही है कि जैन आचार्यों की प्रवृत्ति न्यायशास्त्र की ओर होना चाहिए तथा ज्ञानक्षेत्र मे चौकावाजी नही होना चाहिए। फल यह हुआ कि जैनदृष्टि से प्रमाणशास्त्र लिखा जाने लगा और जैनाचार्यो के द्वारा जैनेतर दार्शनिक या अन्य कृतियो पर टीका भी लिखी जाने लगी। इसके विषय मे भागे प्रसगात् अधिक कहा जायगा । अकलकदेव ने प्रमाणशास्त्र की व्यवस्था इस युग में की यह कहा जा चुका है । प्रमाणशास्त्र का मुख्य विषय प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता और प्रमिति है । इसमे से प्रमाणो की व्यवस्था अकलक ने इस प्रकार की है-
प्रमाण
अवधि ०
प्रत्यक्ष
मस्य
मन पर्यय० केवल ०
साव्यवहारिक इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्ष ( मतिज्ञान )
परोक्ष
स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क
अनुमान आगम (सज्ञा ) (चिन्ता) (अभिनिबोध ) ( श्रुत)